कर्मजिज्ञासा। राजाओं की कथा मैं, व्यक्त किया गया है (मनु. ७.४१ और ८. १२८ ममा. शां. ५६.६२-१०० तथा अश्व. ४)। अहिंसा, सत्य और अस्तेय के साथ इन्द्रिय-निग्रह की भी गणना सामान्य धर्म में की जाती है (मनु. १०.६३) । काम, क्रोध, लोभ आदि मनुष्य के शत्रु हैं, इसलिये जब तक मनुष्य इनको जीत नहीं लेगा तय तक समाज का कल्याण नहीं होगा। यह उपदेश सन शास्त्रों में किया गया है । विदुरनीति और भगव- गीता में भी कहा है: त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः । कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत् त्रयं त्यजेत् ।। काम, क्रोध और लोभ ये तीनों नरक के द्वार हैं, इनसे हमारा नाश होता है, इसलिये इनका त्याग करना चाहिये " (गीता. १६. २१; ममा. उ. ३२.७० )। परन्तु गीता ही में भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने स्वरूप का यह वर्णन किया है "धर्मा- विरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ" हे अर्जुन ! प्राणिमान में जो 'काम' धर्म के अनुकूल है वही मैं हूँ (गीता. ७. ११)। इससे यह वात सिद्ध होती है कि जो काम ' धर्म के विरुद्ध है वही नरक का द्वार है, इसके अतिरिक्त जो दूसरे प्रकार का काम है अर्थात जो धर्म के अनुकूल है, वह ईश्वर को मान्य है। मनु ने भी यही कहा है " परित्यजेदर्थकामौ यो स्याता धर्मवर्जिती" जो अर्थ और काम, धर्स के विरुद्ध हों, उनका त्याग कर देना चाहिये (मनु. ४. १७६ )। यदि सब प्राणी कल से 'काम' का त्याग कर दें और मृत्युपर्यंत ब्रह्मचर्यव्रत से रहने का निश्चय कर लें तो सौ-पचास वर्ष ही में सारी सजीव सृष्टि का लय हो जायगा । और जिस सृष्टि की रक्षा के लिये भगवान वार बार शावतार धारण करते हैं उसका अल्पकाल ही में उच्छंद हो जायगा। यह बात सच है कि काम और क्रोध मनुष्य के शत्रु परन्तु कव ? जब वे अनिवार्य हो जाय तव । यह बात मनु प्रादि शास्त्रकारों को सम्मत है कि सृष्टि का क्रम जारी रखने के लिये, उचित मर्यादा के भीतर, काम और क्रोध की अत्यंत श्रावश्यकता है (मनु. ५.५६)। इन प्रवल मनोवृत्तियों का उचित रीति से निग्रह करना ही सव सुधारों का प्रधान उद्देश है। उनका नाश करना कोई सुधार नहीं कहा जा सकता; क्योंकि भागवत (११.५.११) में कहा है:- लोके व्यवायामिपमद्यसेवा नित्यास्ति जन्तोनहि तन चोदना । व्यवस्थितिस्तेषु विवाहयज्ञसुराग्रहैरासु निवृत्तिरिष्टा ।। इस दुनिया में किसी से यह कहना नहीं पड़ता कि तुम मैथुन, मांस और मदिरा का सेवन करो; ये बातें मनुष्य को स्वभाव ही से पसन्द हैं। इन तीनों की कुछ व्यवस्था कर देने के लिये अर्थात्, इनके उपयोग को कुछ मर्यादित करके व्यवस्थित कर देने के लिये (शास्त्रकारों ने) अनुक्रम से विवाह, सोमयाग और - "
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