पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/७९०

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गीता, अनुवाद और टिप्पणी- १० सन्याय । Is पुद्धि नमसंमोहः क्षमा सत्यं दमः शमः । सुख दुः भवाऽभावो भयं चाभयमेव च ॥४॥ महिंसा समता ताटेस्तपो दानं यशोऽयशः। भवान्त भावा भूत ना मत्त एव पृथग्विधाः॥५॥ महर्षयः सप्त पूर्व चत्वारो मनवस्तथा। (७) युद्धि, शान, अमीर, उपा. साय, यम, शमा सुदुःप, मय(पति), अमाप (नारा), मा. अभय. (0) आसा, समता, सुटि (मरसप). तप. क्षान, यश और भया प्रादि अनेक मसर के प्रागिमान के भाव मुझपे ही वापर होते हैं। । ['भाव' शब्द का अर्थ है 'अवस्या, "स्थिति ' या वृत्ति' भोर लाप. शास में पुद्धि के भाव एवं शारीरिक माय' ऐसा भेद किया गया है। मांगपाती पुरुष को सकता और सादि को महमि का एक विकार मानते हैं, इस. लिये ये कहते हैं कि लिाशरीर को पशु-पक्षी आदि के भिन्न-मित्र जन्म मिलने का कारण लिशरीर में रहनेवाली पुदि की विभिन्न संघस्याएँ अपश माय isी (वैखां गीतार. पृ. 19 और सा. का. १०-५५ ) और ऊपर के यो लोकों में इन्हीं भायों का घणंग है। पातु पेदान्तिपों का पिद्धान्त है कि प्रकृति और पुरुष से भी परे परमात्मरूपी एफ निय तय है और (नामदीय सूक्त के यांनानुगार) डी के मन में पुष्टि निर्माण करने की इच्या उत्पन्न होने पर सारा य जगत् उत्पन्न होता है। इस कारण घेदान्तशाण में भी कहा कि सृष्टि के HAIR सभी पदार्थ परम के मानस भाव है (गला झोक देख)। तप, दान jऔर यश प्रादि शब्दों से सान्निष्टक घुदि के भाव ही अदिष्ट हैं । भगवान और कहते हैं कि- (O सान नापि बनके पहले के चार, और मनु. मेरे ही मानप, अर्थात् मन से निर्माण किये हुए, माव है कि जिनसे (१) सोक में यह प्रजा हुई। । [यपि इस श्लोक के शब्द सरल तथापि जिन पौराणिक पुरुषों को प्रदेश करके यह लोक हा गया है. उनके सम्बन्ध से टीफाफरों में यहुत ही मतभेद है। विशे. पतः धनकों ने इसका निर्णय कई प्रकार से किया है कि पहले के (वै) और चार (यारः) पदों का अन्य किस पद से लगाना चाहिये । सात महर्षि प्रसिद्ध है, परन्तु प्रहा के एक कप मैं बाद मन्धर (देखो. मार. H. SEE) है बार प्रत्येक मन्वन्तर के मनु देवता एवं स्मर्षि भित्र भित्र होते है (देखो हवि. श १.७ विष्णु. ३. १; और मत्स्य ९)। इसी से पहले के' शब्द को सात महर्षियों का पिशेपण मान कई लोगों ने ऐसा अर्थ किया है कि माज कल के मात पवस्वत मन्वन्तर से पहले के, पाप मन्वन्तरवाने समर्षि यहाँ विय. नित हैं। इन पतपियों के नाम भृगु, नभ, विवस्वाइ, सुधामा, विरजा, अति. मामा मौर साहिष्णु है। किन्तु हमारे मन में यह अर्थ ठीक नहीं है । क्योंकि