पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/८००

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गीता, अनुवाद और टिप्पणी-१० अध्याय । ७६१ न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम् ॥ ३९ ॥ नांतोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परंतप । एष तूदेशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया ।।४।। SS यद्यद्विभूतिमरसत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा । तत्तदेवावगन्छ त्वं मम तेजोऽशसंभवम् ॥ ४१ ॥ अथवा बहुनैतेन किं ज्ञानेन तवार्जुन । विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् ।। ४२ ॥ इति श्रीमद्भगवद्गीसु उपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशाने श्रीकृष्णार्जुन- संवादे विभूतियोगो नाम दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥ भो कुछ वीज है यह मैं हूँ ऐसा कोई चर-अचर भूत नहीं है जो मुझे छोड़े हो। (४०) हे परन्तप ! मेरी दिव्य विभूतियों का अन्त नहीं है । विभूतियों का यह विस्तार मैंने (केवल ) दिग्दर्शनार्थ बतलाया है। [इस प्रकार मुख्य मुख्य विभूतियाँ बतला कर अब इस प्रकरण का उप. संहार करते हैं-] (११) जो वस्तु वैभव, लक्ष्मी या प्रभाव से युक्त है, उसको तुम मेरे तेज के अंश से उपजी हुई समझो । (४२) अथवा हे अर्जुन ! तुम्हें इस फैलाव को जानकर करना क्या है? (संक्षेप में बतलाये देता हूँ, कि) मैं अपने एक (ही) अंश से इस सारे जगत् को व्याप्त कर रहा हूँ। [अन्त का श्लोक पुरुषसूक की इस ऋचा के आधार पर कहा गया है "पादोऽस्य विद्या भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि" (ऋ. १०.६०.३), और यह मन्त्र छान्दोग्य उपनिषद (३. १२.६) में भी है। 'अंश' शब्द के अर्थ का खुलासा गीतारहस्य के नवे प्रकरण के अन्त (पृ. २४६ और २४७) में किया गया है। प्रगट है, कि जब भगवान् अपने एक ही पंश से इस जगत में न्यास हो रहे हैं, तब इसकी अपेक्षा भगवान की पूरी महिमा बहुत ही अधिक होगी; और उसे बतलाने के हेतु से ही अन्तिम श्लोक कहा गया है। पुरुषसूक्त में तो स्पष्ट ही कह दिया है, कि " एतावान् अस्य महिमाऽतो ज्यायांश्च पूरुषः "यह इतनी इसकी महिमा हुई, पुरुष तो इस की अपेक्षा कहीं श्रेष्ठ है।] इस प्रकार श्रीभगवान् के गाये हुए अर्थात् कहे हुए उपनिषद् में, ब्रह्मविधान्त- गत योग -अर्थात् कर्मयोग-शास्त्रविषयक, श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में, विभूतियोग नामक दसवाँ अध्याय समाप्त हुआ। गी.र.९६