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पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/७९९

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गीतारहस्य अथवा फर्मयोगशाख ।' मृत्युः सर्वहरचाहमुद्भवश्च भविष्यताम् । कीर्तिः श्रीविच नारीणां स्मृतिमेधा धृतिः क्षमा॥३४॥ वृहत्साम तथा सानां गायत्री छंदसामहम् । मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः ॥ ३५॥ चूत छलयतामस्मि तेजस्तजस्विनामहम् । जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्वं सत्त्ववतामहम् ॥ ३६॥ वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पांडवानां धनंजयः। मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः ॥ ३७ ।। दंडो मयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम् । मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम् ॥ ३८ ॥ यचापि लसूतानां बीजं तदहमर्जुन । लेनेवालों का उत्पत्तिस्थान मैं हूँ, स्त्रियों में कीर्ति, श्री, और वाणी, स्मृति, मेघा, धति तथा क्षमा मैं हूँ। । [कीर्ति, श्री, वाणी इत्यादि शब्दों से वही देवता विवक्षित हैं। महा- भारत (आदि.६६. १३, १४) में वर्णन है, कि इनमें से वाणी और क्षमा को छोड़ शेष पाँच, और दूसरी पाँच (पुष्टि, श्रद्धा, किया, लजा, और मति) दोनों मिल कर कुन दशौं दक्ष की कन्याएँ हैं। धर्म के साथ स्याही जाने के कारण इन्हें धर्मपत्नी कहते हैं। (३५) साम अर्थात् गाने के योग्य वैदिक स्तोत्रों में वृहत्साम, (और) छन्दों में गायत्री छन्द मैं हूँ मैं महीना में मार्गशीर्ष और ऋतुओं में वसन्त हूँ। [महीनों में मार्गशीर्ष को प्रथम स्थान इसलिये दिया गया है कि उन दिनों बारह महीनों को मार्गशीर्ष से ही गिनने की रीति थी, जैसे कि आज कलं चैत्र से है-(देखो ममा. अनु. १०६ और १०६; एवं वाल्मीकिरामायण ३. १६)! भागवत ११. १६. २७ में भी ऐसा ही उल्लेख है। हमने अपने ओरायन' अन्य में लिखा है कि मृगशीर्ष नक्षत्र को अग्रहायणी अथवा वर्षा- रम्भ का नक्षत्र कहते थे जब नृगादि नक्षत्र गणना का प्रचार था तब मृग नक्षत्र को प्रथम अग्रस्थान मिला, और इसी से फिर मार्गशीर्ष महीने को भी श्रेष्टता मिली होगी। इस विषय को यहाँ विस्तार के भय से अधिक वनाना उचित नहीं है। (२६) मैं छलियों ने धूत हूँ, तेजस्वियों का तेज, (विजयशाली पुरुषों का) विजय, (निश्चयी पुरुषों का) निश्चय और सावशीला का सत्व मैं हूँ। (३७) मैं यादवों में वासुदेव, पांडवों में धनक्षय, मुनियों में व्यास और कवियों में शुक्राचार्य कवि हूँ। (३८) में शासन करनेवालों का दंड, जय की इच्छा करनेवालों की नीति, और गुलों में मौन हूँ। ज्ञानियों का ज्ञान मैं हूँ। (६) इसी प्रकार हे भईन! द भूताना