पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/८०५

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७६६ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । रूपं महत्ते बहुवक्त्रनेत्रं महाबाहो बहुवाहूरुपादम् । बहूदरं बहुदंष्ट्राकरालं हवा लोकाः प्रत्यार्थतास्तयाहम् ॥ २३ ॥ नभःस्पृशं दीप्तमनेकवर्ण व्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम् । दृष्ट्वा हि त्वां प्रत्याथितांतरात्मा धृति न विदामि शमं च विष्णो२४ दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि दृष्ट्वैव कालानलसंनिमानि । दिशो न जाने न लभे च शर्म प्रसीद देवेश जगन्निवास ॥ २५॥ अमी च त्वां धृतराष्ट्रस्य पुत्राः सर्वे सहेवावनिपालसंधैः। भीष्मो द्रोणः सूतपुत्रस्तथासौ लहास्मदीयैरपि योधमुख्यैः ॥ २६ ॥ वक्त्राणि ते त्वरमाणा विशन्ति दंष्ट्राकरालानि भयानकानि । केचिद्विलना दशनांतरेषु संदृश्यन्ते चूर्णितैरुत्तमांगैः ॥ २७ ॥ यथा नदीनां वहाऽऽवेगाः समुद्रसेवाभिमुखा द्रवन्ति । तथा तवासी नरलोकवीरा विशन्ति वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति ॥२८॥ यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतंगा विशन्ति नाशाय समृद्धवेगा। सात प्रकार के गण बतलाये हैं। श्रादित्य आदि देवता वैदिक हैं। ऊपर का कम श्लोक देखो। वृक्षदारण्यक उपनिपद (३.६.२) में यह वर्णन है, कि आठ वसु, ग्यारह रुद्र, बारह धादित्य और इन्द्र तथा प्रजापति को मिला कर ३३ देवता शेते और महामारत आदिपर्व न. ६५ एवं ६६ में तथा शान्तिपर्व अ.२०८ में इनके नाम और इनकी उत्पत्ति वतलाई गई है।] (२३) हे महावाहु ! तुम्हारे इस महान्, अनेक मुखों के, अनेक आँखों के, भनेक मुलाबों के अंदाजाओं के अनेक पैरों के, अनेक उदरों के और अनेक डाढों के कारण विकराज दिखनेवाले रूप को देख कर सब लोगों को और मुझे भी भय हो रहा है। (११) प्रामाश से मिड़े हुए, प्रकाशमान, अनेक रंगों के, जबड़े फैलाये हुए और बड़े चमकीले नेत्रों से युक्त तुमको देख कर अन्तरात्मा घबड़ा गया है। इससे है विष्णो ! मेरा धीरज-बूट गया और शान्ति भी जाती रही ! (२५) ढाहों से विकराल तयां प्रनयनालीन अग्नि के समान तुम्हारे (इन) मुखों को देखते ही मुम दिशाएँ नहीं सूझती और समाधान भी नहीं होता। हे जगनिवास, देवाधि. देव ! प्रसन्न हो जाओ ! (२६) यह देखो! राजात्रों के मुण्डों समेत धृतराष्ट्र के सब पुत्र, भीम, द्रोण और यह सूतपुत्र (कर्ण) हमारी मी ओर के मुख्य-मुल्म योदामों के साथ, (२७) तुम्हारी विकराल दाढीवाले इन अनेक भयंकर मुखों में धड़ाधड़ घुस रहे हैं और कुछ लोग दाँतों में ईव र ऐसे दिखलाई दे रहे हैं कि जिनकी खोपड़ियाँ चूर हैं । (रस) तुम्हारे अनेक प्रज्वलित मुखों में मनुष्यलोक के बे वीर वैसे ही घुस रहे हैं, जैसे कि नदियों के बड़े बड़े प्रवाह समुद्र की ही भोर चले जाते हैं। (२९) जलती हुई अग्नि में मरने के लिये बड़े वेग से जिस प्रकार