पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/८०६

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गीता अनुवाद और टिप्पणी- ११ अध्याय । तथैव नाशाय विशन्ति लोकास्तवापि वक्त्राणि समृद्धवेगा॥१९॥ लेलियसे असमानः समंताल्लोकान्समग्रान्वदनवलद्भिः। तेजोभिरापूर्य जगत्समग्रं भासस्तवोग्राःप्रतपन्ति विष्णो ॥ ३० ॥ आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद । विसातुमिच्छामि भवन्तमाधं न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम् ॥३१॥ श्रीभगवानुवाच । S$ कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः । ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिताःप्रत्यनीकेषु योधाः३२ तस्मात्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून्भुव राज्यं समृद्धम् । मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमानं भव सव्यसाचिन् ॥ ३३ ॥ द्रोणं च भीमं च जयद्रथं च कर्ण तथान्यानपि योधवीरान् । मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठा युद्धयस्व जेतासि रणे सपत्नान्३४ पतन कूदते हैं, वैसे ही तुम्हारे भी अनेक जपड़ों में (ये) लोग मरने के लिये बड़े वेग से प्रवेश कर रहे हैं। (३०) हे विष्णो! चारों ओर से सब लोगों को अपने प्रज्व- लित मुखों से निगल कर तुम जीभ चाट रहे हो ! और, तुम्हारी उम्र प्रभाएँ तेज से समूचे जगत् को व्याप्त कर (चारों ओर ) चमक रही हैं। (३१) मुझे बतलामो कि इस उग्र रूप को धारण करनेवाले तुम कौन हौ ? हे देवदेवश्रेष्ठ ! तुम्हें गमस्कार फरता हूँ! प्रसन हो जाओ ! मैं जानना चाहता हूँ कि तुम प्रादि-पुरुष कौन हो। क्योंकि मैं तुम्हारी इस करनी को (बिलकुल नहीं जानता। श्रीभगवान ने कहा-(३२) मैं लोकों का क्षय करनेवाला गौर बढ़ा हुआ काल' हूँ यहाँ लोकों का संहार करने शाया हूँ। तू न हो तो भी (अर्थात् तू कुछ न करे तो भी), सेनाओं में खड़े हुए ये सब योद्धा नष्ट होनेवाले (मरनेवाले ) हैं। (३३) अतएव तु उठ, यश लाभ कर, और शत्रुओं को जीत करके समृद्ध राज्य का उपभोग कर। मैंने इन्हें पहले ही मार डाला है (इसलिये अब) हे सव्यसाची (अर्जुन)! तू केवल निमित्त को लिये (आगे) हो ! (३४) मैं द्रोण, भीष्म, जयद्रथ और कर्ण तथा ऐसे ही अन्यान्य वीर योद्धाओं को (पहले ही) मार चुका है। उन्हें न मार; घवदाना नहीं ! युद्ध कर! तू युद्ध में शत्रुधों को जीतेगा । । सारांश, जय श्रीकृष्ण सन्धि के लिये गये थे, तब दुर्योधन को मेल की कोई भी बात सुनते न देख भीष्म ने श्रीकृपा से केवल शब्दों में कहा था, कि 1. कालपकमिदं मन्ये सर्व चत्रं जनार्दन" (ममा. स. १२७. ३२) ये सब चित्रिय कालपक हो गये हैं। उसी कधन का यह प्रत्यक्ष दृश्य श्रीकृष्ण ने अपने विश्वरूप से अर्जुन को दिखला दिया है (अपर २६-३श्लोक देखो)। कर्मविपाक-प्रक्रिया का यह सिद्धान्त भी ३३ वै श्लोक में भा गया है। कि दुष्ट