पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/८०८

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गीता, अनुवाद और टिप्पणी-११ अध्याय । अनंतवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्व समाप्नोपि ततोऽसि सर्वः॥४०॥ सखेति मत्वा प्रसमं यदुक्कं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति । अजानता महिमानं तवेदं मया प्रमादात्प्रणयेन वापि ॥४१॥ यञ्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि विहारशय्यासनभोजनेषु । एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं तत्क्षामये त्वामह्मप्रमेयम् ॥ ४२॥ पितासि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुगरीयान् । त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभावः तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायं प्रसादये त्वामहमीशमीडयम् । प्रयांत प्रमा, पौर परदाया भी तुम्ही हो। तुम्हें हज़ार यार नमस्कार है! पौर फिर भी तुम्ही को नमस्कार ! [प्रया से मरीचि आदि सात मानस पुत्र उत्पन्न हुए और मरीचि से कश्यप तथा कश्यप से सब प्रजा उत्पना हुई है (ममा. आदि.६५. ११); इस. लिये इन मरीचि मादि को ही प्रजापति कहते हैं (शां. ३४०. ६५) । इसी से कोई कोई प्रजापति शब्द का अर्थ कश्यप आदि प्रजापति करते हैं। परन्तु यहाँ प्रजापति शब्द एकवचनान्त है, इस कारण प्रजापति का अर्थ ब्रह्मदेव ही अधिक प्राय देख पड़ता है, इसके अतिरिक्त ब्रह्मा, मरीचि प्रादि के पिता अर्थात सय के पितामह (दादा), प्रतः आगे का 'प्रपितामह' (परदादा) पद भी पाप ही आप प्रगट होता है और उसको सार्थकता व्यक्त हो जाती है।] (४०) हे सर्वात्मक! तुम्हें सामने से नमस्कार है, पौधे से नमस्कार है और सभी मोर से तुमको नमस्कार है । तुम्हारा वीर्य अनन्त है और तुम्हारा पराक्रम अतुल है, सब को यथेष्ट होने के कारण तुम्ही सर्व हो। । [सामने से नमस्कार, पीछे से नमस्कार, ये शब्द परमेश्वर की सर्वव्यापकता दिखलाते हैं। उपनिषदों में ब्रह्म का ऐसा वर्णन है, कि " ब्रहोवेदं अमृतं पुरस्तात् नम पश्चात् ग्रह दक्षिणतमोत्तरेण । अघश्चोय च प्रसृतं नावेद विश्वमिदं वरिष्टन् " (मुं. २. २. ११, छां. ७. २५) उसी के अनुसार भक्तिमार्ग की यह नमनात्मक स्तुति है। (e) तुम्हारी इस महिमा को बिना जाने, मित्र समझ कर प्यार से या भूल से 'अरे कृप्य"मो यादव,"हे सखा, ' इत्यादि जो कुछ मैंने कह डाला हो, (७२) और ई अच्युत! आहार-विहार में अथवा लोने-बैठने में, अकेले में या दस मनुष्यों के समन मैं ने इसी-दिल्लगी में तुम्हारा जो अपमान किया हो, उसके लिये मैं तुमसे क्षमा माँगता हूँ। (४३) इस चराचर जगत् के पिता तुम्ही हो, तुम पूज्य हो और गुरु के भी गुरु हौ ! त्रैलोक्य भर में तुम्हारी बराबरी का कोई नहीं है। फिर हे मतुलप्रमाव! अधिक कहाँ से होगा? () स्तुत्य और समर्थ हो इसलिये मैं शरीर झुका कर नमस्कार करके तुमसे प्रार्थना करता हूँ कि " प्रसन्न गी.र.९७.