७६८ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । संजय उवाच । एतच्छुत्वा वचनं केशवस्य कृतांजलिर्वेपमानः किरीटी । नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णं सगद्गदं भीतभीतः प्रणम्य ॥३५॥ अर्जुन उवाच । स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या जगत्प्रहष्यत्यनुरज्यते च । रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसंघा३६ कस्माञ्च ते न नमेरन्महात्मन् गरीयसे वह्मणोऽप्यादिकरें। अनंत देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत् ॥ ३७॥ त्वमादिदेवः पुरुपः पुराणस्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् । वेत्ताऽसि वैद्यं च परं च धास त्वया ततं विश्वमनन्तरूप ॥३८॥ वायुर्यमोऽग्निवरुणः शशांकः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च । नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ॥३९॥ नमः पुरस्तादद्य पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व। मनुष्य अपने कर्मों से ही मरते हैं, उनको मारनेवाला तो सिर्फ निमित्त है, इसलिये नारनेवाले को उसका दोष नहीं लगता। सक्षय ने कहा-(६५) केशव के इस भाषण को सुन कर अर्जुन अत्यन्त मय- भीत हो गया, गला रुंध कर, काँपते-काँपते हाय जोड़, नमस्कार करके उसने श्रीकृष्ण से नम्र होकर फिर कहा-अर्जुन ने कहा-(२६), हे हृषीकेश ! (सब) जगत् तुम्हारे (गुण-) कीर्तन से प्रसन्न होता है, और ( उसमें)अनुरक रहता है, राक्षस तुमको डर कर (दशॉ) दिशाओं में भाग जाते हैं, और सिद्ध पुरुषों के संघ तुम्हीं को नम- स्कार करते हैं, यह (सव) उचित ही है। (२७) हे महात्मन् ! तुम ब्रह्मदेव के भी धादिकारण और उससे भी श्रेष्ठ हौतुम्हारी बन्दना, वे कैसे न करेंगे? हे अनन्त ! हे देवदेव! हे जगनिवास! सत् और असत् तुम्ही हो, और इन दोनों से परे ओं अचर है वह भी तुम्ही हो। i [गीता ७. २४, ८, २०, और १५, १६ से देख पड़ेगा कि सत् और असन् शब्दों के अर्थ यहाँ पर क्रम से व्यक्त और अन्यक्त अथवा घर और अक्षर इन शब्दों के अर्थों के समान हैं। सत् और असत् से परे जो तत्व है, वही अक्षर ब्रह्म है इसी कारण गीता १३. १२ में स्पष्ट वर्णन है कि मैं न तो सद हूँ और न असत् । गीता में अक्षर' शब्द कमी प्रकृति के लिये और कभी ब्रह्म के लिये उपयुक्त होता है। गीता६. १८१३. १२७और १५.१६ की टिप्पणी देखो।] (३८) तुम आदिदेव, (तुम) पुरातन पुरुष, तुम इस जगत के परम आधार, तुम ज्ञाता और ज्ञेय तथा तुम श्रेष्ठस्थान हो और हे अनन्तरूप! तुम्हीं ने (इस) विश्व को विस्तृत अथवा व्याप्त किया है। (३९) वायु, यम, प्राप्ति, वरुण, चन्द्र, प्रजापति .
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