पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/८२

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कर्मजिज्ञासा। नहीं है । भगवद्गीता में स्पष्ट रीति से लिखा है "समः सर्वेषु भूतेषु" यही सिद्ध पुरुषों का लक्षण है। परन्तु समता कहते किते हैं? यदि कोई मनुष्य योग्यता- अयोग्यता का विचार न करके सब लोगों का समान दान करने लगे तो क्या हम उसे अच्छा कहेंगे? इस प्रश्न का निर्णय भगवद्गीता ही में इस प्रकार किया है- देश काले च पाने च तदान सास्त्रि विदुः"-देश, काल और पात्रता का विचार कर जो दान किया जाता है वही सात्त्विक कहलाता है (गीता. १७.२०)। काल की मर्यादा सिर्फ वर्तमान काल ही के लिये नहीं होती। ज्यों ज्यों समय बदलता जाता है त्यों त्यों व्यावहारिक-धर्म में भी परिवर्तन होता जाता है। इसलिये जब प्राचीन समय की किसी बात की योग्यता या अयोग्यता का निर्णय करना हो तब उस समय के धर्म-अधर्म-संबंधी विश्वास का भी अवश्य विचार करना पड़ता है। देखिये मनु (१.८५) और व्यास (मभा. शां. २.५९.८) कहते हैं:- अन्ये कृतयुगे धर्मास्त्रेतायां द्वापरेऽपरे । अन्ये कलियुगे नृणां युगहासानुरूपतः ।। युगमान के अनुसार कृत, त्रेता, द्वापर और कलि के धर्म भी मिन भिन्न होते हैं " महाभारत (आ. १२२, और ७६ ) में यह कया है कि प्राचीन काल में स्त्रियों के लिये विवाह की मर्यादा नहीं थी, वे इस विषय में स्वतंत्र और अनावृत्त थीं; परन्तु जब इस आचरण का बुरा परिणाम देख पड़ा तव श्वेतकेतु ने विवाह की मर्यादा स्थापित कर दी और, मदिरापान का निषेध भी पहले पहल शुक्राचार्य ही ने किया । तात्पर्य यह है कि जिस समय ये नियम जारी नहीं थे उस समय के धर्म- अधर्म का और उसके बाद के धर्म-अधर्म का निर्णय भिन्न भिन्न रीति से किया जाना चाहिये । इसी तरह यदि वर्तमान समय का प्रचलित धर्स भागे बदल जाय तो उसके साथ भविष्य काल के धर्म-अधर्म का विवेचन भी भिन्न रीति से कियाजायगा। कालमान के अनुसार देशाचार, कुलाचार और जातिधर्म का भी विचार करना पड़ता है, क्योंकि आचार ही सब धर्मों की जड़ है। तथापि आचारों में भी बहुत भिन्नता हुआ करती है। पितामह भीष्म कहते हैं: न हि सर्वहितः कश्चिदाचारः संप्रवर्तते । तेनैवान्यः प्रभवति सोऽपरं बाधते पुनः ॥ " ऐसा आचार नहीं मिलता जो हमेशा सव लोगों को समान हितकारक हो । यदि किसी एक प्राचार का स्वीकार किया जाय तो दूसरा उससे बढ़ कर मिलता है, यदि इस दूसरे प्राचार का स्वीकार किया जाय तो वह किसी तीसरे प्राचार का विरोध करता है" (शां. २५६, १७, १८)। जब आचारों में ऐसी भिन्नता हो तव, भीम पितामह के कथन के अनुसार तारतम्य अथवा सार-असार- दृष्टि से विचार करना चाहिये।