पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/८२३

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७८४ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । 8 अमानित्वमदभित्वमाहिंसा शांतिरार्जवम् । आचायांपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः ॥ ७॥ इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहंकार एव च । जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोपानुदर्शनम् ॥ ८ ॥ असक्तिरनभिवंगः पुत्रदारगृहादिषु । नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु ॥ ९ ॥ को अलग बतलाने की ज़रूरत न थी । परन्तु कणाद-मतानुयायियों के मत से ये धर्म भात्मा के हैं। इस मत को मान लेने से शंका होती है कि इन गुणों का क्षेत्र में ही समावेश होता है या नहीं। भतः क्षेत्र शब्द की व्याख्या को नि:- सन्दिग्ध करने के लिये यहाँ स्पष्ट शति से क्षेत्र में ही इच्छा-पं भादि द्वन्दों का समावेश कर लिया है और उसी में भय-समय प्रादि अन्य इन्हों का भी लक्षणा से समावेश हो जाता है। यह दिखलाने के लिये कि सब का संघात अर्थात् समूह क्षेत्र से स्वतन्त्र कर्ता नहीं है, उसकी गणना क्षेत्र में ही की गई है। कई बार चेतना' शब्द का चैतन्य' अर्थ होता है । परन्तु यहाँ चेतना से "जड़ देह में प्राण प्रादि के देस पड़नेवाले व्यापार, अथवा जीवितावस्था की चेष्टा,' इतना ही अर्थ विवक्षित है। और ऊपर दूसरे श्लोक में कहा है कि जड़ वस्तु में यह चेतना जिससे उत्पन्न होती है वह चिच्छक्ति प्रयवा चैतन्य, त्रिज्ञ-रूप से, क्षेत्र से अलग रहता है । 'ति' शब्द की व्याख्या मागे गीता (१८.३३) में ही की है, उसे देखो । छठे श्लोक के समासेन' पद का अर्थ !" इन सब का समुदाय " है। अधिक विवरण गीतारहस्य के पाठवें प्रकरण के भन्त (पृ. १४३ और ११४) में मिलेगा । पहले क्षेत्रज्ञ' के यानी परमेश्वर' वतज्ञा कर फिर खुलासा किया है कि क्षेत्र क्या है। अब मनुष्य के स्वभाव पर ज्ञान के जो परिणाम होते हैं, उनका वर्णन करके यह बतलाते हैं कि ज्ञान किसको कहते हैं और प्रागे ज्ञेय का स्वरूप बतलाया है। ये दोनों विषय देखने में भिन्न देख पड़ते हैं अवश्य पर वास्तविक रीति से वे चैत्र-क्षेत्रज्ञ-विचार के ही दो भाग है। क्योंकि प्रारम्भ में ही क्षेत्रज्ञ का अर्थ परमेश्वर बतला आये हैं। अतएव क्षेतज्ञ का ज्ञान ही परमेश्वर का ज्ञान है और उसी का स्वरूप अगले श्लोकों में वर्णित है-बीच में ही कोई मनमाना विषय नहीं है (७) मान-हीनता, दम्भ-हीनता, अहिंसा, क्षमा, सरलता, गुरुसेवा, पवि. त्रता, स्थिरता, मनोनिप्रह, (६) इन्द्रियों के विषयों में विराग, अहङ्कार-हीनता और जन्म-मृत्यु-बुढ़ापा-व्याधि एवं दुःखों को (अपने पीछे लगे हुए) दोप सम- झना; () (कर्म में) अनासक्ति, बालबच्चों और घर-गृहस्थी आदि में सम्पटन होना, इष्ट या अनिष्ट की प्राति से चित की सर्वदा एक ही सी वृत्ति रखना, 1918-