७८५ गांता, अनुवाद और टिप्पणी-१३ अध्याय । मंयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी । विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि ॥१०॥ अध्यात्मशाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् । एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ॥ ११ ॥ (१०) और मुझमें अनन्य भाव से भटल भक्ति, विविक्त' भात चुने हुए भगवा एकान्त स्थान में रहना, साधारण लोगों के जमाव को पसन्द न करना, (11) अध्यात्म ज्ञान को नित्य समझना और तत्वज्ञान के सिद्धान्तों का परिशीलन-इनको ज्ञान कहते हैं। इसके व्यतिरिक्त जो कुछ है यह सय प्रज्ञान है। [साथ्यों के मत में क्षेत्र क्षेत्रज्ञ का ज्ञान की प्रकृति-पुरुष के विवेक फा ज्ञान है भीर उसे इसी अध्याय में भागे थतलाया है (१३. १८-२३० १३. {१E)। इसी प्रकार अठारहवें अध्याय (१८. २०) में ज्ञान के स्वरूप का यह प्यापक लक्षण यतलाया है-" भविभक्त विभक्तपु"। परन्तु मौनशास्त्र में क्षेत्र क्षेत्रज्ञ के ज्ञान का अर्थ पुद्धि से यही जान लेना नहीं होता कि अमुक अमुक बातें अमुक प्रकार की है। अध्यात्मशाख का सिद्धान्त यह है कि उस ज्ञान का देह के स्वभाव पर साम्यखिरूप परिणाम होना चाहिये; अन्यथा यह ज्ञान अपूर्ण या कया है। प्रतएव यह नहीं पतलाया कि पुदि से अमुक अमुक जान लेना ही ज्ञान है बल्कि ऊपर पाँच श्लोकों में ज्ञान की इस प्रकार व्याख्या की गई है कि जब उक्त श्लोकों में बतलाये हुए घीस गुगा (मान पीर दम्भ का छूट . जाना, माईसा, अनासक्ति, समावि, इत्यादि) मनुष्य के स्वभाव में देख पड़ने लगें तय, उसे ज्ञान कहना चाहिये (गीतार. पृ. २४७ पार २८)। दसवें श्लोक में "विविक्तस्थान में रहना और जमाव को नापसन्द करना" भी शान का एक लक्षण कहा है। इससे कुछ लोगों ने यह दिखलाने का प्रयत्न किया है कि गीता को संन्यासमार्ग ही अमीर है। किन्तु हम पहले ही बतला प्रापे (देखो गी. १२. १६ की टिप्पणी और गीतार. पृ. २८३) कि यह मत ठीक नहीं है और ऐसा अर्थ करना उचित भी नहीं है। यहाँ इतना ही विचार किया है कि ज्ञान क्या है और वह ज्ञान घाल-बच्चों में, घर-गृहस्थी में अथवा लोगों के जमाव में अनासक्ति है, एवं इस विषय में कोई बाद भी नहीं है। अब अगला प्रश्न यह है कि इस ज्ञान के हो जाने पर, इसी मनासक-बुदि से घाल-बचों में अथवा संसार में रह कर प्राणिमान के हितार्थ जगत् के व्यवहार किये जाय अथवा न किये जायें; और केवल ज्ञान की व्याख्या से ही इसका निर्णय करना उचित नहीं है। क्योंकि गीता में ही भगवान् ने भनेक स्थलों पर कहा है कि ज्ञानी पुरुप कर्मों में लिप्त न होकर उन्हें भासत युद्धि से लोकसंग्रह के निमित्त करता रहे और इसकी सिद्धि के लिये जनक के वर्ताव का और अपने व्यवहार का उदाहरण भी दिया है (गी. ३. १९-२५. ४. १४)। समर्थ गी, २.९९
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