पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/८२७

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गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । 8 प्रकृति पुरुष चैव विद्धयनादी उभावपि । विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसंभवान् ॥ १९ ॥ कार्यकरणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते ।। पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते ।। २० ॥ [अध्यात्म या वेदान्तशास्त्र के आधार से भव तक क्षेत्र, ज्ञान और ज्ञेय का विचार किया गया। इनमें 'ज्ञेय' ही क्षेत्रज्ञ अथवा परब्रह्म है और 'ज्ञान' दूसरे श्लोक में बतलाया हुआ क्षेत्र क्षेत्रन-ज्ञान है, इस कारण यही संचप में परमेश्वर के सब ज्ञान का निरूपण है। वें श्लोक में यह सिद्धान्त बतला दिया है कि जब क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विचार ही परमेश्वर का ज्ञान है, तब आगे यह भाप ही सिद्ध है कि उसका फल भी मौन ही होना चाहिये । वेदान्तशास्त्र का क्षेत्र क्षेत्रज्ञ-विचार यहाँ समाप्त हो गया । परन्तु प्रकृति से ही पाञ्चभौतिक विकार- वान् क्षेत्र उत्पन्न होता है इसलिये, और सांख्य जिस 'पुरुष' कहते हैं उसे ही अध्यात्मशास्त्र में 'आत्मा' कहते हैं इसलिये, सांख्य की दृष्टि से क्षेत्र क्षेत्रज्ञविचार ही प्रकृति-पुरुष का विवेक होता है। गीताशाख प्रकृति और पुरुष को सांख्य के समान दो स्वतन्त्र तत्व नहीं मानता; सातवें अध्याय (७.४,५) में कहा है कि ये एक ही परमेश्वर के, कनिष्ट और श्रेष्ट, दो रूप है। परन्तु साल्यों के द्वैत के बदले गीताशास्त्र के इस मदत को एक बार स्वीकार कर लेने पर, फिर प्रकृति और पुरुष के परस्पर सम्बन्ध का सांख्या का ज्ञान गीता को अमान्य नहीं है। और यह भी कह सकते हैं कि क्षेत्र क्षेत्र के ज्ञान का ही रूपान्तर प्रकृति-पुरुष का विवेक है (देखो गीतार.प्र.)। इसी लिये अब तक उपनिषदों के प्राधार से जो क्षेत्रन्देवज्ञ का ज्ञान बतलाया गया, उसे ही भव सांख्यों की परिभाषा में, किन्तु सांख्यों के द्वैत को अस्वीकार करके, प्रकृति-पुरुष-विवेक के रूप से बतलाते हैं-] (१६) प्रकृति और पुरुष, दोनों को ही अनादि समझ। विकार और गुणों को प्रकृति से ही उपजा हुआ जान । i [सांख्यशास्त्र के मत में प्रकृति और पुरुष, दोनों न केवज्ञ अनादि हैं प्रत्युत स्वतन्स और स्वयंभू भी हैं। वेदान्ती समझते हैं कि प्रकृति परमेश्वर से ही उत्पन्न हुई है, अतएव वह न स्वयम्भू है और न स्वतन्त है (गी. ४.५,६)। परन्तु यह नहीं बतलाया जा सकता कि परमेश्वर से प्रकृति कब उत्पन्न हुई और पुरुष (जीव) परमेश्वर का ही अंश है (गी. १५.७); इस कारण वेदान्तियों को इतना मान्य है कि दोनों अनादि है। इस विषय का अधिक विवेचन गीतारहल के प्रकरण में और विशेषतः पृ. ३६-६७ में, एवं ३० वें प्रकरण के. २६२-२६५ में किया गया है।] (२०) कार्य अर्थात् देह के और करण अर्थात् इन्द्रियों के कर्तृत्व के लिये प्रकृति