गीता, अनुवाद और टिप्पणी-१४ अध्याय । ७६७ जन्ममृत्युजगदुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते ॥ २० ॥ अर्जुन उवाच । F कैलिंगैस्त्रीन्गुणानेतानतातो भवति प्रभो। किमाचारः कथं चैतांस्त्रीन्गुणानतिवर्तते ॥२१ ।। श्रीभगवानुवाच । प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पांडव । न हेष्टि संप्रवृत्तानि न निवृत्तानि कांक्षति ॥ २२ ॥ उदासीनवदासीनो गुणयों न विचाल्यते । गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नंगते ॥ २३ ॥ समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकांचनः । तुल्यप्रियानियो धीरस्तुल्यनिंदात्मसंस्तुतिः ॥ २४ ॥ मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः (२०) देहधारी मनुष्य देव की उत्पत्ति के कारण (स्वरूप) इन तीनों गुणों को अतिक्रमण करके जन्म, नृत्यु पार पुढ़ापे के दुःखों से विमुक्त होता हुआ अमृत का अर्थात मोन का अनुभव करता है। [वेदान्त में जिले माया कहते हैं, उसी को सांख्यमत-वाले त्रिगुणात्मक प्रकृति कहते है इसलिये त्रिगुणातीत होना ही माया से छूट कर पाना को पहचान लेना है (गी. २. ४५); और इसी को माहो अवस्या कहते हैं (गी. १२.०२; १८.५३) । अध्यात्मशास्त्र में बतलाये हुए निगुणातीत के इस लक्षण को सुन कर उसका और अधिक वृत्तान्त जानने की अर्जुन को इच्छा हुई और द्वितीय अध्याय (२. ५४) में जैसा उसने स्थितप्रज्ञ के सम्बन्ध में प्रश्न किया था, वैसा ही यहाँ भी वह पूछता है-] अर्जुन ने कहा-(२१) हे प्रभो ! किन लक्षणों से (जाना जाय कि वह) इन तीन गुगों के पार चला जाता है ? (मुझे वतलाइये, कि) वह (त्रिगुणातीत का) आचार क्या है, और वह इन तीन गुणों के परे कैसे जाता है ? श्रीमगवान् ने कहा-(२२) हे पाण्डव ! प्रकाश, प्रवृत्ति और मोह (अर्थात् क्रम से सत्व, रज और तम, इन गुणों के कार्य अथवा फल) होने से जो उनका द्वेप नहीं करता, और प्राप्त न हों तो उनकी घांकांक्षा नहीं रखता; (२३) जो (कर्मफल के सम्बन्ध में) उदासीन सा रहता है (सम्व, रज और तम) गुण जिसे चल-बिचल नहीं कर सकते; जो इतना ही मान कर स्थिर रहता है कि गुण (अपना अपना) काम करते हैं। जो डिगता नहीं है अर्थात् विकार नहीं पाता है। (२४) जिसे सुख-दुःख एक से ही हैं जो स्वस्थ है अर्थात् अपने में भी स्थिर है। मिट्टी, पत्थर और सोना जिसे समान है। प्रिय भप्रिय, निन्दा और अपनी स्तुति जिसे समसमान है जो
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