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पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/८३७

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गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशाला सर्वारंभपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते ॥ २५ ॥ 8 मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते । स गुणान्समतीत्यैतान् ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ २६ ॥ ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च । सदा धैर्य से युक्त है। (२५) जिसे मान-अपमान या मित्र और शत्रु-दल तुल्य हैं अर्थात् एक से हैं; और (इस समझ से कि प्रकृति सब कुछ करती है। जिसके सब (काम्य) उद्योग छूट गये है। उस पुरुष को गुणातीतं कहते हैं। i [यह इन दो प्रश्नों का उत्तर हुमा, कि त्रिगुणातीत पुरुष के लक्षण क्या है, और आचार कैसा होता है । ये लक्षण, और दूसरे अध्याय में बतलाये हुए स्थितप्रज्ञ के लक्षण (२.५५-७२), एवं बारहवें अध्याय (१२. १३-२०) में बतलाये हुए भक्तिमान् पुरुष के लक्षण सब एक से ही हैं । अधिक क्या कहें सर्वारम्भपरित्यागी, तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः' और 'उदासीनः' प्रभूति कुछ विशेषण भी दोनों या तीनों स्थानों में एक ही हैं। इससे प्रगट होता है, कि पिछले अध्याय में बतलाये हुए (१३. २४, २५) चार मार्गों में से किसी भी मार्ग के स्वीकार कर लेने पर सिद्धि प्राप्त पुरुष का आचार, और उसके लक्षण सक मागी में एक ही से रहते हैं। तथापि तीसरे, चौथे और पाँचवें अध्यायों में जब यह दृढ़ और अटल सिद्धान्त किया है कि निष्काम कर्म किसी से भी नहीं छह सकते तंब स्मरण रखना चाहिये कि ये स्थितप्रज्ञ, भगवद्भक्त या त्रिगुणातीत सभी कर्मयोग-मार्ग के हैं। सर्वारम्भपरित्यागी' का अर्थ १२ वें अध्याय के १९ वे श्लोक की टिप्पणी में बतला आये हैं। सिद्धावस्था में पहुंचे हुए पुरुषों के इन वर्णनों को स्वतन्त्र मान कर लन्यासमार्ग के टीकाकार अपने ही सम्प्रदाय को गीता में प्रतिपाद्य बतलाते हैं। परन्तु यह अर्थ पूर्वापर सन्दर्भ के विरुद्ध है, अतएव ठीक नहीं है। गीतारहस्य के ११वें और १२ वे प्रकरण में (पृ.३२४- ३२५ और ३७३) इस बात का हमने विस्तारपूर्वक प्रतिपादन कर दिया है। अर्जुन के दोनों प्रश्नों के उत्तर हो चुके । अब यह बतलाते हैं, कि ये पुरुष इन तीनगुणों से परे कैसे जाते हैं-] (२६) और जो (मुझे ही सब कर्म अर्पण करने के) अव्यभिचार, अर्थात् एक- निष्ट, भक्तियोग से मेरी सेवा करता है, वह इन तीन गुणों को पार करके ब्रह्मभूत अवस्था पा लेने में समर्थ हो जाता है। i [सम्भव है, इस श्लोक ले वह शङ्का हो, कि जब त्रिगुणातीत अवस्था सांख्यमार्ग की है, तंव वही अवस्था कर्मप्रधान मक्तियोग ले कैसे प्राप्त हो जाती है। इसी से भगवान कहते हैं,] (२७) क्योंकि, अमृत और अव्यय ब्रह्म का, शाश्वत धर्म का एवं एकान्तिक अर्थात परमावधि के अत्यन्त सुख का अन्तिम स्थान मैं ही हूँ।