पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/८४

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कजिज्ञासा। परन्तु आज कल 'नीति' शब्द ही में कर्तव्य अथवा सदाचरण का भी समावेश किया जाता है, इसलिये हमने वर्तमान पद्धति के अनुसार, इस अंध में धर्म-अधर्म या कर्म-अकर्म के विवेचन ही को “ नातिशास" कहा है। नीति, कर्म-अकर्म या धर्म-अधर्म के विवेचन का यह शाख बड़ा गहन है। यह भाव प्रकट करने ही के लिये “ सूक्ष्मा गतिहिं धर्मस्य "-सात् धर्म या व्यावहारिक नीति- धर्म का स्वरूप सूक्ष्म है-यह वचन महाभारत में कई जगह उपयुक्त हुआ है। पाँच पाण्डवों ने मिल कर अकेली द्रौपदी के साथ विवाह कैसे किया? द्रौपदी के वखहरण के समय भीपा-द्रोगा आदि सत्पुरुष शून्यहृदय हो कर चुपचाप फ्यों बैठे रहे ? दुष्ट दुर्योधन की ओर से युद्ध करते समय भीष्म और द्रोणाचार्य ने, अपने पक्ष का समर्थन करने के लिये, जो यह सिद्धान्त यतलाया कि " अर्यस्य पुरुपो दासः दासस्त्वर्थो न कस्यचित् "-पुरुप अर्थ (सम्पत्ति) का दास है, अर्थ किसी का दास नहीं हो सकता-(मभा. भी. ४३.३५), वह सच है या भूठ ? यदि सेवाधर्म को कुत्ते की वृत्ति के समान निन्दनीय माना है, जैसे " सेवा शत्तिराख्याता " (मनु. ३०६), तो अर्थ के दास हो जाने के बदले भीष्म आदिकों ने दुर्योधन की सेवा ही का त्याग क्यों नहीं कर दिया? इनके समान और भी अनेक प्रश्न होते हैं जिनका निर्णय करना बहुत कठिन है। पयोंकि इनके विषय में, प्रसंग के अनुसार, मिन भिन्न मनुष्यों के भिन्न भिन्न अनुमान या निर्णय हुआ करते हैं। यही नहीं समझना चाहिये कि धर्म के तच सिर्फ सूक्ष्म ही हैं-" सूक्ष्मा गतिहि धर्मस्य "-(मभा. १०.७०); किन्तु महाभारत (वन. २०८. २) में यह भी कहा है कि "यशाखा एनंतिका "-अर्यार उसकी शाखाएँ भी अनेक हैं और उससे निकलनेवाले अनुमान भी भिन्न भिन्न है। तुलाधार और जाजलि के संवाद में, धर्म का विवेचन करते समय, तुलाधार भी यही कहता है कि “ सूक्ष्मत्वान्न स विज्ञात शक्यते बहुनिहवः " अर्थात् धर्म बहुत सूक्ष्म और चपर में डालनेवाला होता है इसलिये वह समझ में नहीं आता (शां. २६१.३७)। महाभारतकार व्यासजी इन सूक्ष्म प्रसंगों को अच्छी तरह जानते थे; इसलिये उन्होंने यह समझा देने के उद्देश ही से अपने ग्रंथ में अनेक भिन्न भिन्न कयाओं का संग्रह किया है कि प्राचीन समय के सत्पुरुषों में ऐसे कठिन मौकों पर कैसा वतीव किया था। परन्तु शाख-पद्धति से सब विपयों का विवेचन करके उसका सामान्य रहस्य महा- भारत सरीखे धर्मग्रंथ में, कहीं न कहीं बतला देना आवश्यक था। इस रहस्य या मर्म का प्रतिपादन, अर्जुन की कर्तव्य-मृद्धता को दूर करने के लिये भगवान् श्रीकृष्ण ने पहले जो उपदेश दिया था उसी के आधार पर, व्यासजी ने भगवद्गीता में किया है। इससे 'गीता' महाभारत का रहस्योपनिषद् और शिरोभूपण हो गई है। और महाभारत गीता के प्रतिपादित भूलभूत कर्मतत्वों का उदाहरण सहित विस्तृत व्याख्यान हो गया है। उस बात की और उन लोगों को अवश्य ध्यान देता चाहिये, जो यह कहा करते हैं कि महाभारत ग्रंथ में 'गीता' पछेि से गी. र. ७