५० गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । घुसेड़ दी गई है। हम तो यही समझते हैं कि यदि गीता की कोई अपूर्वता या विशेषता है तो वह यही है कि जिसका उल्लेख ऊपर किया गया है। कारण यह है कि यद्यपि केवल मोक्षशास्त्र अर्थात् वेदान्त का प्रतिपादन करनेवाले उपनिषद् आदि, तया अहिंसा आदि सदाचार के सिर्फ नियम बतलानेवाले स्मृति आदि, अनेक ग्रंथ हैं। तथापि वेदान्त के गहन तत्त्वज्ञान के आधार पर " कार्याकार्यन्यव- स्थिति " करनेवाला, गीता के समान, कोई दूसरा प्राचीन ग्रंथ संस्कृत साहित्य में देख नहीं पड़ना । गीताभक्तों को यह बतलाने की आवश्यकता नहीं कि 'कार्या- कार्यव्यवस्थिति' शब्द गीता ही (३६.२४) में प्रयुक्त हुआ है-यह शब्द हमारी मनगढंत नहीं है। भगवनीता ही के समान योगवासिष्ट में भी वसिष्ट मुनि ने श्रीरामचंद्रजी को ज्ञान-मूलक प्रवृत्ति मार्ग ही का उपदेश किया है। पल्नु यह ग्रंय गीत के बाद बना है और उसमें गीता ही का अनुकरण किया गया है। अतएव ऐसे ग्रंथों से गीता की न्स अपूर्वता या विशेषता में, जो ऊपर कही गई है, कोई बाधा नहीं होती।
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