पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/८४४

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गीता, अनुवाद और टिप्पणी -१५ अध्याय । ८०५ गृहीत्वैतानि संयाति वायुगंधानिवाशयात् ॥८॥ श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसन प्राणमेव च। अधिष्ठाय मनश्वार्य विषयानुपसेवते ॥९॥ उत्क्रामंतं स्थितं वापि भुंजान वा गुणान्वितम् । विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः ॥१०॥ यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम् । यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः॥११॥ साथ ले जाता ईजले कि (पुष्प आदि) आश्रय से गन्ध को वायु ले जाती है। (e) कान, आँख, त्वचा, जीभ, नाक और मन में ठहर कर यह (जीव) विषयों को भोगता है। । [इन तीन श्लोकों में से, पहले में यह बतलाया है कि सूक्ष्म या लिङ्ग-शरीर क्या है फिर इन तीन अवस्थाओं का वर्णन किया है कि लिंग-शरीर स्थूल देह मैं कैसे प्रवेश करता है, वह उससे बाहर कैसे निकलता है, और उसमें रह कर विषयों का उपभोग कैसे करता है । सांख्य-मत के अनुसार यह सूदम-शरीर महान् ताव से लेकर सूक्ष्म पञ्चतन्मानाओं तक के अठारह तत्वों से बनता है और वेदा- न्तसूत्रों (३. १.१) में कहा है कि पन सूक्ष्मभूसों का और प्राण का भी उसमें समावेश होता है (देखो गीतारहस्य पृ. १८७ - १६१)। मैन्युपनिषद् (६. १० में वर्णन है कि सूक्ष्मशरीर भठारह तत्वों का बनता है। इससे कहना पड़ता है कि “मन और पाँच इन्द्रियाँ । इन शब्दों से सूक्ष्मशरीर में वर्तमान दूसरे तत्वों का संग्रह भी यहाँ अभिप्रेत है । वेदान्तसूत्रों (३. १७ और ४३) में भी नित्य' और 'श' दो पदों का उपयोग करके ही यह सिद्धान्त बतलाया है कि जीवात्मा परमेश्वर से पारंवार नये सिरे से उत्पन्न नहीं हुआ करता, वह परमेश्वर का सनातन मंश" है (देखो गी. २. २४) गीता के तेरहवें अध्याय (१३. ४) में जो यह कहा है कि क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार ब्रह्मसूत्रों से लिया गया है, उसका इससे दृढ़ीकरण हो जाता है (देखो गी. र. परि. पृ. ५३७ -५३८)। गीतारहस्य के नवें प्रकरण (पृ. २४६) में दिखलाया है कि 'अंश' शब्द का अर्थ 'घटाकाशादि'- चित् अंश समझना चाहिये, न कि सरिडत 'अंश'। इस प्रकार शरीर को धारण करना, उसको छोड़ देना, एवं उपभोग करना-इन तीनों क्रियाओं के जारी रहने पर-] (१०) (शरीर से) निकल जानेवाले को, रहनेवाले को, अथवा गुणों से युक्त हो कर (आप ही नहीं) उपभोग करनेवाले को मूर्ख लोग नहीं जानते । ज्ञान चनु से देखनेवाले लोग (उसे) पहचानते हैं। (११) इसी प्रकार प्रयत्न करनेवाले योगी अपने आप में स्थित आत्मा को पहचानते हैं। परन्तु वे भज्ञ लोग, कि जिनका आत्मा अर्थात् बुद्धि संस्कृत नहीं है, प्रयत्न करके भी उसे नहीं पहचान पाते।