पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/८५३

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८१४ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । असौ मया हतः शत्रुहनिष्ये चापरानपि । ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं वलवान्मुखी ॥ १४ ॥ आयोऽभिजनवानस्मि कोन्योऽस्ति सहशो मया । यक्ष्ये दास्यामि मोदिज्य इत्यज्ञानविमोहिताः ॥१५॥ अनेकचित्तविभ्रांता मोहजालसमावृताः। प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ ॥ १६ ॥ आत्मसंभाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः। यजन्ते नामयस्ते दम्मेनाविधिपूर्वकम् ॥ १७ ॥ अहंकारं वलं दर्प कामं क्रोधं च संश्रिताः। मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः ॥ १८॥ तानह द्विषतः ऋरान्संसारेषु नराधमान् । क्षिपाम्यजनसशुभानासुरीष्वेव योनिषु ॥ १९ ॥ आसुरी योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि। मामप्राप्यैव कौतय ततो यान्त्यधमां गतिम् ।। २०॥ Is त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः । कामः क्रोधस्तथा. लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ।। २१ ।। पास) है, और फिर वह भी मेरा होगा; (१४) इस शत्रु को मैंने मार लिया एवं . औरों को भी मार्गा; मैं ईश्वर, मैं (ही) भोग करनेवाला, मैं सिद्ध, बनाना और सुखी हूँ, (१५) मैं समय और कुलीन हूँ, मेरे समान और है कौन ? मैं यह करूँगा, दान दूंगा, मौज करूँगा इस प्रकार अज्ञान से मोहित, (१६) अनेक प्रकार की कल्पनाओं में भूले हुए, मोह के फन्दे में फंसे हुए और विषयोपभोग में मालक (ये भासुरी लोग) अपवित्र नरक में गिरते हैं ! (१७) आत्मप्रशंसा करने पाले, एंठ से वर्तनवाले, धन और मान के मद से संयुक्त ये (आसुरी लोग) दम्म से, शास्त्र-विधि छोड़ कर केवल नाम के लिये यज्ञ किया करते हैं । (१८) अहवार से, वन से, दर्प से, काम से और क्रोध से फूल कर, अपनी और पराई देह में वर्तमान मेरा (परमेश्वर का) द्वेष करनेवाले, निन्दक, (१९) और अशुभ कर्म करनेवाले (इन) द्वेपी और कर अधम नरों को मैं (इस ) संसार की मासुरी मर्थात् पापयोनियों में ही सदैव पटकता रहता हूँ।(२०) हे कौन्तेय ! (इस प्रकार) जन्म-जन्म में आसुरी योनि को ही पा कर, ये मूर्ख लोग मुझे बिना पाये ही प्रत में अत्यन्त अधोगति को जा पहुंचते हैं। [आसुरी लोगों का और उनको मिलनेवाली गति का वर्णन हो चुका । अब fi इससे छुटकारा पाने की युक्ति बतलाते ई-] (२१) काम, क्रोध और लोभ, ये तीन प्रकार के नरक के द्वार हैं। बेमात