पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/८५२

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गीता, अनुवाद और टिप्पणी १६ अध्याय । ८१२ पता टिमवाटभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः । प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः ॥९॥ काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः। मोहाद्गृहीत्याऽसद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिवताः॥१०॥ चितामपरिमेयां च मलयान्तामुपाश्रिताः। कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः ॥ ११ ॥ आशापाशशतैद्धाः कामक्रोधपरायणाः । ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसंचयान् ॥ १२॥ इदमय मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम् । दमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम् ॥ १३ ॥ 12. १५७ चौर १५८)। प्रन्योन्य' मौर परसर' दोनों शब्द समानार्थ, सापयशास में गुणों के पारस्परिक झगड़े का वर्णन करते समय ये दोनों शब्द खाते हैं (देखो ममा. शां. ३०५, सां. का. १२ भार १२)। गीता पर जो माध्य माप्य है, उसमें इसी अर्थ को मान पर, यह दिखलाने के लिये कि जगत् की पत्तएँ एक दूसरी ले कैसे उपजती, गीता का यही श्लोक दिया गया है- "माजवन्ति भूतानि इत्यादि-" (घमि में छोड़ी हुई प्राति सूर्य को पहुँचती ६, अतः) यश से पृषि, वृष्टि से आन, शीर प्रश्न से प्रजा उत्पन्न होती है (देखो गी. ३. १५ मनु. ३.७६)। परन्तु तैत्तिरीय उपनिषद का वचन इसकी अपेक्षा यधिक प्राचीन और व्यापक है, इस कारण उसी को अपर प्रमागर में दिया ६। तथापि हमारा मत है कि गीता के इस '-परसरसम्भूत' पद से उपनि- पद के दृष्टयुत्पत्ति-क्रम की अपेक्षा सांख्यों का सृष्टद्युत्पत्ति-कम ही अधिक विव- शित है । जगत की रचना के विषय में ऊपर जो आसुरी मत यतलाया गया है, यसका इन लोगों के यर्ताव पर जो प्रभाव पड़ता है, उसका वर्णन करते हैं । अपर के लोक में, अन्त में, जो कामहतुक पद है उसी का यह अधिक स्पष्टीकरण है। (६) इस प्रकार की दृष्टि को स्वीकार करके ये अल्प-मुद्धिवाले नष्टात्मा और दुष्ट शोक र फर्म करते हुए जगत का क्षय करने के लिये उत्पन्न हुआ करते हैं, (१०) (भोर) कमी भी पूर्ण न होनेवाले काम अर्थात विषयोपभोग की इच्छा का पाश्रया के ये (भारी जोग) दम्भ, मान और मद से ज्याप्त हो कर मोह के कारण झूठमूठ विश्वास अर्थात मनमानी कल्पना करके गंदे काम करने के लिये प्रवृत्त रहते हैं। (११) इसी प्रकार आमरणान्त (सुख भोगने की ) अगणित चिन्ता से असे हुए, कामोपभोग में हुये हुए और निश्चयपूर्वक उसी को सर्वस्व माननेवालो, (१२) सैकड़ा माशा-पाशों से जकड़े हुए, काम-क्रोध-परायण (ये आसुरी बोग) सुख लूटने के लिये अन्याय से बहुत सा अर्थ-सञ्चय करने की तृष्णा करते हैं। (१२) मैंने मान यह पा लिया, (फल) इस मनोरथ को सिद्ध करूँगा; यह धन (मेरे