- गीता, अनुवाद और टिप्पणी ३७ अध्याय । सात्त्विको राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु ॥२॥ सत्वानुरूपा सर्वस्य भद्धा भवति भारत। श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः ॥ ३ ॥ यजन्ले सारिखका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः । प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः ॥४॥ भीमगवान ने कहा कि-(२)प्राणिमान की श्रद्धा स्वभावत: तीन प्रकार की होती ६. एक साधिक दूसरी राजस और तीसरी तामत उनका वर्णन सुनो । (२) भारत ! सब लोगों की श्रद्धा अपने अपने साल के अनुसार अर्थात् प्रकृतिस्वभाव के अनुसार होती है। मनुष्य दामय है। जिसकी जैसी श्रद्धा रहती है, यह वैसा ही होता है। [दूसरे लोक में सव' शब्द का अर्थ देवस्वभाव, पुद्धि अथवा अन्त:- घरा है। उपनिषद् में 'साव' शब्द इसी अर्थ में शापा (२.६.७), और वेदान्तसूत्र फे शाकरभाष्य में भी क्षेत्र दोनह' पद को धान में सायक्षेत्रज्ञ'पद फा उपयोग किया गया है (बेस. शांगा. १. २. १२)। तात्पर्य यह है कि दूसरे लोक का स्वभाव' शब्द और तीसरे श्लोक का 'सच' शब्द यहाँ दोनों ही समा- मार्थक है।पयोंकि सांस्य और वेदान्त दोनों को ही यह सिद्धान्त मान्य है कि स्वभाव का अर्थ प्रकृति से और इसी प्रकृति से शुद्धि एवं अन्तःकरण वस्पन होने है। "यो यचटवः स एव सा-यह तय "देवताओं की भक्ति करनेवाले देव- ताओं को पाते है" प्रमृति पूर्व वर्णित सिद्धान्तो काही साधारण अनुवाद है (७.२०-२३६६. २५) । इस विषय का विवेचा 'इमने गीतारहस्य के रहये प्रकरण में किया है (देखिये गीतार. पृ. ४२१-४२७) तथापि जब यह कहा कि, जिसकी जैसी बुद्धि हो उसे पैसा फल मिलता है, और वैसी बुद्धि का होना या न होना,प्रकृति-स्वभाव के अधीन है तथा प्रभ होता है कि फिर वह पानि सुपर क्योंकर सकती है । इसका यह उत्तर है कि प्रात्मा स्वतन्त्र है, अतः देह का यह स्वमाय फ्रमशः सम्यान और वैराग्य के द्वारा धीरे-धीरे बदला जा सकता है। इस बात का विवेचन गीतारहस्य के दसवें प्रकरण में किया गया है (पृ. २७७ - २२)। अभी तो यही देखना है कि प्रता में भेद क्यों और कैसे होते हैं। इसी से कहा गया है कि प्रकृति-खभावानुसार श्रद्धा बदलती है। सब पतनाते हैं कि जप प्रकृति भी साव, रज और तम इन तीन गुणों से युक्त है, तब प्रत्येक मनुष्य में श्रद्धा के भी विधा भेद किस प्रकार उत्पन्न होते हैं, और उनके परिणाम क्या होते ई-] (७)जो पुरुष साविक हैं अर्थात् जिनका स्वभाव लत्वगुण-प्रधान है के देवताओं का पान करते हैं। राजस पुरुष यदों और रावसों का यजन करते हैं एवं इसके अतिरिक्तको सामस पुरुष हैं, वे प्रेतों और भूतों का यजन करते हैं। भी.र. १०३
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