पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/८५७

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८१८ गीतारहत्त्व अथवा कर्मयोगशाख । अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः। दमाहंकारसंयुक्ताः कामरागवलान्विताः ॥५॥ कर्पयन्तः शरीरस्यं भूतग्राममचेतसः। मां चैवांत शरीरस्थं वान्विद्यासुरनिश्चयान् ॥ ६॥ IS आहारस्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः। यस्तपस्तथा दानं तेषां मेदमिमं शृणु ॥७॥ [इस प्रकार शास्त्र पर श्रद्धा रखनेवाले मनुष्यों के मी सत्व मादि प्रकृति के गुण-भेदों से जो तीन भेद होते हैं, उनका और उनके स्वल्पों का वर्णन हुआ। वितलाते हैं कि शास्त्र पर अदा न रखनेवाने काम-परायण और दाम्मिक नोग किस श्रेणी में आते हैं। यह तो स्पष्ट है कि ये लोग साविक नहीं हैं, परन्तु निर तामस भी नहीं कई जासरते क्योंकि यद्यपि इनके कर्म शास्त्रविरुद्ध होते वियापि इनमें कनं भाने की प्रवृत्ति होती है और यह रजोगुण का धर्म है। तात्पर्य यह है कि ऐसे मनुष्यों को न साविक कह सकते हैं, न रानस और न तामस । अतरव देवी और मासुरी नामक दो कचार बना कर उकदुष्ट पुरुषों का मासुरी कक्षा में समाश किया जाता है । यही अर्थ अगले दो लोगों में स्वर किया गया है। (७) परन्तु जो लोग दम्म और महार से युक्त होकर काम एवं प्रासादि के पल पर शास्त्र के विल्द घोर तप किया करते है ) तया जोनकवन शरीर के पर महाभूतों के समूह को ही, वरन शरीर के अन्नगत रहनेवाले मुमको भी कष्ट देते हैं। न्हें अविवेकी और आसुरी बुद्धि के जानो। [इस प्रकार र्जुन के प्रश्नों के उचर हुए। इन लोगों का भावार्य यह है कि मिनुष्य की श्रद्धा उसके प्रशति-त्वमावानुसार साविक, राजस अथवा तामस होती है, और उसके अनुसार उसके कर्मों में अन्तर होता है तथा उन कनों के अनुरूप हीटसे पृथक्-पृय गति प्राप्त होती है। परन्तु केवल इतने से ही कोई मासुरी ज्ञा में लेख नहीं लिया जाता । अपनी वायीनता का उपयोग कर और शास्त्रा. नुसार आचरण करके प्रकृतिवमाव को वीरे-धीरे सुधारते नाना प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है। हाँ, जो ऐसा नहीं करते और दुष्ट प्रकृति-स्वभाव का ही अभिमान रख कर शास्त्र के विल्द भाचरण करते हैं, उन्हें आसुरी बुद्धि के कहना चाहिये । यही इन लोकों का भावार्य है। अब यह वर्णन किया जाता है कि श्रद्धा के समान ही आहार, यज्ञ, तप और दान के सत्व-रज-तममय प्रकृति के गुणों से निव-मित मेद कैसे हो जाते है एवं इन मैदों से खनाव की विचित्रता के साथ ही सार क्रिया की विचित्रता भी कैसे एत्पन्न होती है-] (७) प्रत्येक की रुचि का माहार मी तीन प्रकार का होता है । और नही