पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/८५८

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गीता, अनुवाद और टिप्पणी १७-अध्याय । आयुः सत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः। रस्याः सिग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियामा कदवम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरुक्षविदाहिनः । आहारा राजसस्यष्टा दु:खशोकामयप्रदाः ॥९॥ यातयामं गतरसं पूति पर्युपितं च यत् । उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम् ॥१०॥ SS अफलाकांक्षिभिर्यशो विधिदृष्टो य इज्यते । यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय ससात्त्विकः ॥११॥ आभिसंधाय तु फलंदभार्थमपि चैव यत् । इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यशं विद्धि राजसम् ॥ १२॥ हात यश, तप एवं दान का भी है । सुनो, उनका भेद बतलाता हूँ। (८) श्रायु, सापिक पृत्ति, पल, प्रारोग्य, सुख और प्रीति की वृद्धि करनेवाले, रसीने, निग्ध, शरीर में मिद कर चिरकाल तक रहनेवाले और मन को मानन्ददायक आहार साविक मनुष्य को प्रिय होते हैं। () कटु अर्थात् चरपरे, खट्टे, खारे, प्रत्युषण, तीखे रूखे, दाहकारक तथा दुःख-शोक और रोग अपनानेवाले आहार राजस मनुष्य अप्रिय होते हैं। [संस्कृत में कटु शब्द का अर्थ चरपरा और तिक्त का अर्थ कहुआ होता । इसी के अनुसार संस्कृत के वैद्यक प्रन्यों में काली मिरच कडु तथा नीष तिक कही गई है (देखो वारभट. सूत्र. भ. १०) हिन्दी के कहुए और तीखे शब समानुसार कटु और तिक्त शब्दों के ही अपभ्रंश है।) (१०) कुछ काल का रखा हुआ अर्थात ठरादा, नीरस, दुर्गन्धित, यासी, जूंठा तमा अपवित्र भोजन तामस पुरुष को रुचता है। [सारिक्षक मनुष्य को सारिखक, राजस को राजस तथा तामस को तामस भोजन प्रिय होता है। इतना ही नहीं, यदि आहार शुद्ध अर्थात् साविक हो, तो मनुष्य की वृत्ति भी क्रम क्रम से शुद्ध या सात्विक हो सकती है। उपनिषदों में कहा है कि आहारशुद्धौ सव-शुद्धिः' (छ. ७. २६.२) । क्योंकि मन और पुन्धि प्रकृति के विचार हैं, इसलिये जहाँ साविक आहार हुआ वहाँ बुद्धि भी आप ही आप साविक बन जाती है ये पाहार के भेद हुए । इसी प्रकार भय यज्ञ के तीन भेदों का भी वर्णन करते हैं-] (११) फलाशा की आकांक्षा छोड़ कर अपना कर्जन्य समझ करके शास्त्र की विधि के अनुसार, शान्त चित्त से जो यज्ञ किया जाता है वह सात्विक यज्ञ है। (१२) परन्तु हे भरतश्रेष्ठ ! उसको राजस यज्ञ समझो कि जो फल की इच्छा से अपवा दम्म के हेतु अर्थात ऐश्वर्य दिखलाने के लिये किया जाता है। (१३) शाल