पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/८६०

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गीता, अनुवाद और टिप्पणी - १७ अध्याय । अफलाकांक्षिभिर्युक्तैः सात्त्विक परिचक्षते ॥ १७ ॥ सत्कारमानपूजाथै तपो दंभेन चैव यत् । क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमधुवम् ॥ १८ ॥ मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः। परस्योत्सादनार्थवा ततामसमुदाहृतम् ॥ १९ ॥ दातव्यमिति यदान दीयतेऽनुपकारिणे । देशे काले च पात्रे च तहानं सात्त्विकं स्मृतम् ॥ २०॥ यत्तु प्रत्युपकारार्थ फलमुद्दिश्य वा पुनः । दीयते च परिक्लिष्ट तहानं राजसं स्मृतम् ॥ २१ ।। अदेशकाले यहानमपात्रेभ्यश्च दीयते । असत्कृतमवज्ञातं तसामसमुदाहृदम् ।। २२ ।। उत्तम श्रन्दा से, तथा योगयुक्त युति से करे तो वे सात्विक कहलाते हैं । (१८) जो सप (अपने ) सस्कार, मान या पूजा के लिये अथवा दम्भ से, किया जाता है। यह चंचल और मस्थिर तप शास्त्रों में राजस कहा जाता है । (१) मूढ भाग्रह से, स्वयं कष्ट उठा कर, अथवा (जारण-मारण प्रादि कर्मों के द्वारा) दूसरों को सताने केतु से किया हुमा तप तारस कहलाता है। [ये तप के भेद हुए । बय दान के विविध भेद यतलाते हैं- (२०) पद दान सात्विक कहलाता है कि जो कर्तव्यवद्धि से किया जाता है, जो (योग्य ) श्यत-काल और पान का विचार करके किया जाता है, एवं जो अपने अपर प्रत्युपकार न करनेवाले को दिया जाता है । (२१) परन्तु (किये हुए ) सपकार के पदले में, अथवा किसी फल की आशा रख, बड़ी कठिनाई से, जो दान दिया भाता है यह राजस दान है (२२) अयोग्य स्थान में, अयोग्य काल में, अपात्र मनुष्य को, बिना सत्कार के, भथवा अवहेलनापूर्वक, जो दान दिया जाता है वह तामस पान कहलाता i [पाहार, यज्ञ, तप और दान के समान ही ज्ञान, कर्म, कर्ता, पुद्धि, प्रति और सुख की विविधता का वर्णन अगले अध्याय में किया गया है (गी. १८. १२०-३६) । इस अध्याय का गुणभेद-प्रकरण यही समाप्त हो चुका । अव ब्रह्म-निर्देश के आधार पर उक्त सात्विक कर्म की श्रेष्ठता और संप्राप्यता सिद्ध की जावेगी। क्योंकि, उपर्युक्त सम्पूर्ण विषेचन पर सामान्यतः यह शक्षा हो सकती ई कि कर्म साविक हो या राजस, या तामस, कैसा भी क्यों न हो, है तो कह, दुःखकारक और दोपमय ही, इस कारण सारे कर्मों का त्याग किये बिना ब्रह्म- प्राप्ति नहीं हो सकती । और जो यह बात सत्य है तो फिर कर्म के सास्तिक, राजस आदि भेद करने से लाभ ही क्या है ? इस मादेप पर गीता का यह उत्तर है कि कर्म के साविक, राजस और तामस भेद परनाम से अलग नहीं है । जिस 1