पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/८६१

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८२२ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः । ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा ॥ २३ ॥ 8 तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपः क्रियाः। प्रवर्तन्त विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम् ॥ २४ ॥ तदित्यनभिसंधाय फलं यक्षतपःक्रिया। सिकरूप में ब्रह्म का निर्देश किया गया है, उसी में साविक कर्मों का और सत्कमा का समावेश होता है। इससे निर्विवाद सिद्ध है कि ये कर्म अध्यात्म रष्टि से भी त्याज्य नहीं हैं (दखो गीतार. पृ. २४५)। परब्रह्म के स्वरूप का मनुष्य को जो कुछ ज्ञान हुआ है वह सब "ॐ तत्सत् " इन तीन शब्दों के निर्देश में प्रपित है। इनमें से अक्षर ब्रह्म है, और उपनिषदों में इसका भिन्न भिन्न अर्थ किया गया है (प्रश्न. ५, कठ. २. १५-१७ ते. १. ८ छां. १. 1, मैन्यु. ६.३, मांडूक्य १-१२)। और जब यह वर्णाक्षररूपी ब्रह्म ही जगत् के भारम्भ में था, तब सब क्रियामों का प्रारम्भ वहीं से होता है। " तद वह " शन्द का अर्थ ईसामान्य कर्म से परे का कर्म, अर्थात् निष्काम बुद्धि से फसाशा छोड़ कर किया हुआ साविक कर्म; और 'सत्' का अर्थ वह कर्म है कि जो यचपि फलाशासहित हो तो भी शास्त्रानुसार किया गया हो और शुद्ध हो। इस पर्व के अनुसार निष्काम बुद्धि से किये हुए साविक कर्म का ही नहीं, बरन् शाबानुसार किये हुए सब कर्म का भी परब्रह्म के सामान्य और सर्वमान्य सबल्स में समावेश होता है। अतएव इन कर्मों को त्याज्य कहना अनुचित है। अन्त में सव' और 'सत्' कों के अतिरिक एक 'सत्' अर्थात् बुरा कर्म बच रहा । परन्तु वह दोनों लोकों में गर्व माना गया है, इस कारण. अन्तिम शोक में सूचित किया है कि उस कर्म का इस सकल में समावेश नहीं होता । भग- वान् कहते हैं कि- (२३)(शास्त्र में) परब्रह्म का निर्देश तत्सत् ' यों, तीन प्रकार से किया जाता है। इसी निर्देश से पूर्वकाल में ब्राह्मण, वेद और यज्ञ निर्मित हुए हैं। । [पहले कह भाये हैं कि, सम्पूर्ण सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्मदेव रूपी पहला ब्राह्मण, वेद और यज्ञ उत्पन्न हुए (गी. ३. १०)। परन्तु ये सब जिस परममा से उत्पन्न हुए हैं, उस परब्रह्म का स्वरूप तत्सत्' इन तीन शब्दों में है। अतएव इस श्लोक का यह भावार्थ है कि तदसत्' सङ्कल्प ही सारी सृष्टि का मूल है। अब इस सङ्कल्प के तीनों पदों का कर्मयोग की दृष्टि से पृथक् निरूपण किया जाता है.-] (२४) तस्मात्, अर्थात् जगत् का प्रारम्भ इस सङ्कल्प से हुआ है इस कारण, ब्रह्मवादी लोगों के यज्ञ, दान, तप तथा अन्य शास्त्रोक कर्म सदा. के उच्चार के साय हुमा करते हैं (२५) • तत् ' शब्द के उच्चारण से, फल की भाशा न रख 9