गीता, अनुवाद और टिप्पणी- १- अध्याय । ८२५ सर्वकर्मफलत्यागं प्रादुस्त्यागं विचक्षणाः ॥२॥ के नित्प, नैमित्तिक, काम्य और निपिन्द्र प्रभृति कर्मभेद विषक्षित हैं और उनकी समझ में भगवान का अभिप्राय यह है कि उनमें से केवल काम्य काही को छोड़ना चाहिये । परन्तु संन्यासमाय लोगों को नित्य धार नैमित्तिक का भी नहीं चाहिये इसलिये कई यो प्रतिपादन करना पड़ा है कि यहाँ नित्य और नैमित्तिक फों का काम्य कमों में ही समापेश किया गया है। इतना करनेपर भी इस शोक के उत्तरार्ध में जो कहा गया है कि फज़ाशा छोड़ना चाहिये न कि कर्म (भागे छठा लोक देखिये), उसका मेज मिलता ही नहीं; श्रतएव अन्त में इन टीकाकारों ने । अपने ही मन से यों कह कर समाधान कर लिया है कि भगवान् ने यहाँ कर्मयोग- मार्ग की कोरी जति की है। उनका सचा अभिप्राय तो यही है कि कमों को षोड़ ही देना चाहिये ! इससे स्पष्ट होता है कि संन्यास आदि सम्प्रदायों की टि से इस मोक का अब ठीक ठीक नहीं लगता। वास्तव में इसका अर्थ कर्मयोगप्रधान ही करना चाहिये अर्थात् फलाशा छोड़ कर मरण पर्यन्त सारे कर्म करते जाने का जो ताप गीता में पहले भनेक यार कहा गया है, उसी के अनुरोध से यहाँ मी मर्प करना चाहिये तथा यही मर्ष सरल है और फ ठीक जमता भी है। पहने इस बात पर ध्यान देना चाहिये कि 'काम्य शब्द से इस स्थान में मीमांसकों का नित्य, नैमित्तिक, काम्य और निपिद्ध कर्मविभाग अभिप्रेत नहीं । कर्मयोगमार्ग में सब फों के दो ही विभाग किये जाते हैं। एकं 'काम्य' अर्थात् फलाशा से किये हुए फर्म और दूसरे 'निष्काम' अर्थात् फलाशा छोड़ कर किये हुए कर्म । मनुस्मृति में इन्हीं को कम से 'प्रवृत्त कर्म और निवृत्त कर्म कक्षा (देखो मनुः १२.८८ पौर ८८) । कर्म चाहे नित्य हो, नैमित्तिक हों, काम्य हो, कायिक झा, याचिक हो, मानसिक हो, अधया साविक प्रादि भेद के अनुसार भार किसी भी प्रकार के हों उन सम को 'काम्य ' अथवा 'निझाम' इन दो में से किसी एक विभाग में माना ही चाहिये । क्योंकि, काम पर्याव फलाशा का होना, अथवा न होना, इन दोनों के अतिरिक्त फलाशा की एष्टि से तीसरा भेद हो ही नहीं सकता। शाल में जिस फर्म का जो फल कहा गया है- जैसे पुत्र प्राप्ति के लिये पुष्टि-उस फल की प्राप्ति के लिये वह कर्म किया जाय तो यह काम्य' है तथा मन में उस फल की इच्छा न रख कर वही कर्म केवल कर्तव्य समझ कर किया जाय तो वह निष्काम हो जाता है। इस प्रकार सब कर्मों के काम्य' और ' निष्काम ' (भयवा मनु की परिभाषा के अनुसार प्रवृत्त और निवृत्त) यही दो भेद सिद्ध होते हैं। श्रय कर्मयोगी सप 'काम्य' कमाँ को सर्वषा छोड़ देता है, अतः सिद्ध हुआ कि कर्मयोग में भी काम्य कर्म का संन्यास करना पड़ता है। फिर यच रहे निष्काम कर्मः सो गीता मयोगी को निष्काम कर्म करने का निश्चित उपदेश किया गया है सही, परन्तु इसमें भी फनाशा' का सर्वथा त्याग करना पड़ता है (गी. ६.२) । अतएव त्याग का
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