८२८ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । 8 त्याज्यं दोषवदित्येक कर्म प्राहुर्मनीषिणः । यहदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे ॥३॥ निश्चयं शृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम । त्यागो हि पुरुषल्याघ्र त्रिविधः संप्रकीर्तितः ॥४॥ यादानतपः कर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत् । यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् ॥ ५॥ एतान्यपि तु कर्माणि संगं त्यक्त्वा फलानि च। कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम् ॥ ६॥ In भी गीताधर्म में स्थिर ही रहता है । तात्पर्य यह है कि सब को कोन छोड़ने पर भी कर्मयोगमार्ग में संन्यास ' और 'त्याग' दोनों ताव बने रहते हैं। मिर्जुन को यही बात समझा देने के लिये इस श्लोक में संन्यास और त्याग दोनों की व्याख्या यों की गई है कि संन्यास' का अर्थ काम्य कर्मों को सर्वपा छोड़ दिना' है और 'त्याग' का यह मतलब है कि 'जो कर्म करना हो, उनकी फसाशा नरखे। पीछे जब यह प्रतिपादन हो रहा था कि संन्यास (भयवा सांख्य) और योग दोनों तवतः एक ही हैं तव 'संन्यासी' शब्द का अर्थ (गी.५.३-६ और ६. १, २ देखो) तया इसी अध्याय में भागे 'त्यागी' शब्द का अर्थ मी (गी. 10.११) इसी भाँति किया गया है और इस स्थान में वही अयं इट है। यहाँ स्माती का यह मत प्रतिपाद्य नहीं है कि क्रमशः ब्रह्मचर्य, गृहस्थाश्रम और वानप्रस्थ माश्रम का पालन करने पर अन्त में प्रत्येक मनुष्य को सर्व त्यागरूपी संन्यास अथवा चतुर्थाश्रम लिये बिना मोच-प्राप्ति हो ही नहीं सकती।इसले सिद्ध होता है कि कर्मयोगी यद्यपि संन्यासियों का गेरुमा मेष धारण कर सव कर्मों का त्याग नहीं करता तयापि वह संन्यास के सच्चे सो तव का पालन किया करता है, इसलिये कर्मयोग का स्मृतिग्रन्य से कोई विरोध नहीं होता। अब संन्यासमार्ग भौर मीमांसकों के कर्मसम्बन्धी वाद का बल्लेख करके कर्मयोगशास्त्र का, इस विषय में अन्तिम निर्णय सुनाते हैं-] (३) कुछ पंडितों का कयन है कि कर्म दोषयुक्त है अतएव उसका (सर्वया) त्याग करना चाहिये; तथा दूसरे कहते हैं कि यज्ञ, दान, तप और कर्म को कभी नछोड़ना चाहिये । (४) अतएव हे मरतश्रेष्ठ! त्याग के विषय में मेरा निर्णय सुन । हे पुरुषश्रेष्ठ ! त्याग तीन प्रकार का कहा गया है । (५) यज्ञ, दान, तप और कर्म का त्याग न करना चाहिये। इन (कर्मों) को करना ही चाहिये । यज्ञ, दान और तप बुद्धिमानों के लिये (मी) पवित्र अर्थात् चित्तशुद्धिकारक हैं। (६) प्रतएव इन (यज्ञ, दान आदि) को को भी बिना मासक्ति रखे, फलों का स्याग करके (अन्य निकाम कमों के समान ही लोकसंग्रह के हेतु) करते रहना चाहिये । हे पार्थ! इस प्रकार मेरा निश्चित मत (है, तथा वही) उत्तम है।
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