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पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/८७०

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गीता, अनुवाद और टिप्पणी १० अध्याय। $ अनिमिष्टं मिश्रं च त्रिषिधं कर्मणः फलम् । भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु संन्यासिनां क्वचित् । ॥ १२॥ I पंचतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे। सांख्ये कृतांते प्रोमानि सिद्धये सर्वकर्मणाम् ॥ १३॥ अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम् । विविधाश्च पृथक् चेष्टा देवं चैवात्र पंचमम् ॥ १४ ॥ शरीरवारमनोभिर्यकर्म प्रारभते नरः। न्याय्यं वा विपरीतं वा पंते तस्य हेतवः ॥ १५॥ $$ तवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः । पश्यत्यसतवुद्रित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः ॥ १६ ॥ यस्य नादंशतो भावी बुद्धिर्यस्य न लिप्यते । हत्वा स इमाल्लोकान हन्ति न निवद्धयते ।। १७ ।। (१२) मृत्यु के मनन्तर सत्यागी मनुष्य को प्रांत फकाशा का त्याग न करने चारों को तीन प्रकार के फल मिलते मरीष्ट, इष्ट और ( इष्ट और कुछ अनिष्ट मिला दुपा) मिश्र । परन्तु संन्यासी को अपार फलाशा छोड़ पार कम करनेवाले को (गे फन) नहीं मिलते, मांतू बाधा नहीं कर सकते। [त्याग, त्यागी सौर संन्यासी-सम्बन्धी उक्त विचार पहले (गी. ३.४-७; १५.२-१६.१) कई स्थानों में आ चुके हैं, उन्हों का यहाँ उपसंहार किया गया है। समस्त पानी का संन्यास गोवा को कभी इंष्ट नहीं है । फज्ञाशा का त्याग करनेवाला पुल्प ही गीता के अनुसार सचा भर्थात् नित्य-संन्यासी है (गो. ५.३)। ममतायुक्त फलाशा का प्रर्यात् अकारबुद्धि का स्यागं ही सचा त्याग है। इसी सिद्धान्त को हड़ करने के लिये प्रय और कारण दिखलाते हैं- (१३) हे महाया! कोई भी कर्म होने के लिये सांगयों के सिद्धान्त में पाँच कारण कई गये हैं उन्हें मैं यतनाता हूँ, सुग। (१४) अधिष्ठान (स्थान), तथा का, भिन्न-भिल कारण यानी साधन, (फी की) अनेक प्रकार की पृथक् पृथक चेष्टाएँ अर्थात् व्यापार, और उसके साथ ही साथ पांचवा (कारण) देव है। (१५) शरीर से, वाणी से, अथवा मन से मनुष्य जो जो कम करता है-फिर चाहे वह न्याय्य हो या विपरीत अर्थात् सन्याय-उसके उक्त पाँच कारण है। (१६) वास्तविक स्थिति ऐसी होने पर भी जो संस्कृत घुदिन होने के कारण यह समझे कि मैं ही अकेला फत्ती हूँ (समझना चाहिये कि), दुर्मति कुछ भी नहीं जागता । (१७) जिसे यह भावना ही नहीं है कि मैं कर्ता हूँ,' तथा जिसकी पुदि अणित है, वह यदि इन लोगों को मार डाले तथापि (समझना चाहिये की) उसने किसी को नहीं मारा और यह (बर्म) उसे पन्धक भी नहीं होता। .