गीतारहत्य अथवा कर्मयोगशास्त्र। स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत् ॥ ८॥ कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन । संगं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः॥९॥ I न द्वेष्टयकुशलं कर्म कुशले नानुपज्जते । त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेघावी छिन्नसंशयः ।।१०।। न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कमाण्यशेषतः । यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीयभिधीयते ॥ ११ ॥ से किया त्याग तामस कहलाता है। (5) शरीर को कष्ट होने के डर से भयाव दुःख- कारक होने के कारण ही यदि कोई कर्म छोड़ दे तो उसका वह त्याग राजल हो जाता है, (तथा) त्याग का फल उसे नहीं मिलता। हे अर्जुन ! (स्वधमानुसार) नियत कल जब कार्य अथवा कर्तव्य समझ कर और आसक्ति एवं फन को छोड़ कर किया जाता है, तब वह साविक त्यात समझा जाता है। [सातवे लोग नियत' शब्द का अर्थ कुछ लोग नित्य-नैमित्तिक मादि भेदों में ले नित्य कर्म समझते हैं किन्तु वह ठीक नहीं है। नियतं कुरु कर्म त्वं (गी.३.८) पद में नियत' शब्द का जो अर्थ है वही अर्थ यहाँ पर मी करना चाहिये । इन पर कह चुके हैं कि यहाँ नामांसकों की परिभाषा विवचित नहीं है। गी. ३. १९ ने, 'नियत' शब्द के स्थान में कार्य' शब्द पाया है और यहाँ लोक में कार्य एवं 'नियत' दोनों शन्द्र पुकार गये हैं। इस अध्याय के प्रारम्भ में दूसरे श्लोक में यह कहा गया है कि स्वधमांनुसार प्राप्त होनेवाले किसी भी कन को न छोड़ कर इसी को कर्तव्य समझ कर करते रहना चाहिये (देखो गी. ३. 1), इली को साविक त्याग कहते हैं और कर्मयोग- शास्त्र में इसी को त्याग' अथवा 'संन्यास ' कहते हैं। इसी सिद्धान्त का इस लोक में समर्थन किया गया है। इस प्रकार त्याग और संन्यास के अयों का स्पष्टीकरण हो चुका । अव इसी तत्व के अनुसार बतलाते हैं कि वास्तविक त्यागी और संन्यासी कौन है-] (१०) जो मिली अकुशल अर्थात् अकल्याण-कारक कर्म का द्वेष नहीं करता, तथा कल्याण-कारक अथवा हितकारी कर्म में अनुषक्त नहीं होता, उसे सावशीन बुद्धिमान और सन्दह-विरहित त्यागी अर्याद संन्यासी कहना जाहिये । (11) जो देहधारी है, उससे कमो का निशेष त्याग होना सम्भव नहीं है। प्रतएव जिसने (कर्म न छोड़कर) केवल कर्मफलों का त्याग किया हो, वही (सचा) लागी अर्यात् संन्यासी है। [अब यह बतलाते हैं कि बक प्रकार से अधांत कम न छोड़ कर केचन फलाशा छोड़ करके जो त्यागी हुमा हो, उसे उसके कर्म के कोई भी फल बन्धक नहीं होते-
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