पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/८७६

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गीता, अनुवाद और टिप्पणी -१८ अध्याय। प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनंजय ।। २९ ॥ प्रवृतिं च निवृत्तिं च कार्याकार्य भयामये । बंध मोसंच या वत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी ॥३०॥ यया धर्ममधर्म च कार्य चाकार्यमेव च । अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ तामसी ॥ ३१ ॥ अधर्म धर्ममिति या मन्यते तमसावृता । सर्वार्थान् विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी ॥ ३२॥ ६ धृत्या यया धारयते मनाप्राणेंद्रियक्रियाः। . योगेनात्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी॥३३॥ यया तु धर्मकामार्थान् धृत्या धारयतंऽर्जुन । प्रसंगेन फलाकांक्षी धृतिः सा पार्थ राजसी ॥ ३४॥ यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च । न विमुंचति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी ॥ ३५ ॥ के भिन्न मिस भेद होते है, इन सब को तुमसे कहता सुन। (३०) हे पार्ष! को बुद्धि प्रवृत्ति (अर्थात् किसी कर्म के करने) और निवृत्ति (अर्थात न करने) को जानती है, एवं यह जानती है कि कार्य अर्थात करने के योग्य क्या है और प्रकार्य अर्थात करने के अयोग्य क्या है, किससे डरना चाहिये और किससे नहीं, किससे धन्धन होता है और किससे मोक्ष, वह बुद्धि साविक है। (३) हे पार्थ ! यह बुद्धि राजसी है कि जिससे धर्म और अधर्म का अथवा कार्य और कार्य का यथार्थ निर्णय नहीं होता। (३२) हे पार्थ! वह बुद्धि तामसी है कि जो तम से ज्यात होकर अधर्म को धर्म समझती है और सब बातों में विपरीत यानी उलटी समझ कर देती है। । [इस प्रकार बुद्धि के विभाग करने पर सदसद्विवेकबुद्धि कोई स्वतन्त्र देवता नहीं रह जाती, किन्तु साविक बुद्धि में ही उसका समावेश हो जाता है। यह विवेचन गीतारहस्य के पृष्ठ १४५ में किया गया है । बुद्धि के विभाग हो चुके अव पति के विभाग बतलाते है-] (१) हे पार्थ ! जिस अभ्यभिचारिणी अर्थात् इधर उधर न ढिगनेवाली प्रति से मन, प्राण और इन्द्रियों के व्यापार, (कर्मफल-त्यागरूपी) योग के द्वारा (पुरुष) करता है, वह पति साविक है। (३५) हे अर्जुन ! असमानुसार फल की इच्छा रख- नेवाला पुरुष जिस पति से अपने धर्म, काम और अर्थ (पुरुषार्थ) को सिद्ध कर लेता है, वह पति राजस है। (३५) हे पार्थ ! जिस कृति से मनुष्य दुर्बुद्धि हो कर निद्रा, भय, शोक, विषाद और मद नहीं घोड़ता, वह पति तामस है। 1 'ति' शब्द का अर्थ धैर्य है। परन्तु यहाँ पर शारीरिक धैर्य से भाभि- प्राय नहीं है। इस प्रकरण में प्रति शब्द का अर्थ मन का ढ़ निश्चय है