पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/८७७

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८२८ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । सुखं त्विदानी त्रिविधं शृणु मे मरतर्षभ। अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखांतं च निगच्छति ।। ३६ ॥ यत्तदने विपमिव परिणामेऽमृतोपमम् । तत्सुन सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम् ॥ ३७॥ विषयेद्रियसंयोगायतदनेऽमृतोपमम् । निर्णय करना बुद्धि का काम है सही; परन्तु इस बात की भी आवश्यकता है कि बुद्धि जो गोम्य निर्णय करे, वह सदैव स्थिर रहे । बुद्धि के निर्णय को ऐसा स्थिर या हद्ध करना मन का धर्म है, अतएव कहना चाहिये कि पति अथवा मानसिक धैर्य का गुण मन और बुद्धि दोनों की सहायता से उत्पन्न होता है। परन्तु इतना ही कह देने से साविक शृति का लक्षण पूर्ण नहीं हो जाता कि अव्यभिचारी अर्थात इधर उधर विचलित न होनेवाले धैर्य के बल पर मन, प्राण और इन्द्रियों के व्यापार करना चाहिये । बल्कि यह भी बतलाना चाहिये किये व्यापार किल वस्तु पर होते है अयवा इन स्यापारों का कर्म क्या है। वह कर्म' योग शब्द से चित किया गया है। अतः 'योग' शब्द का अर्थ केवल एकार' चित्त कर देने ले काम नहीं चलता। इसी लिये हमने इस शब्द का अर्थ, पूर्वापर सन्दर्भ के अनुसार, कर्मफल-त्यागरूपी योग किया है। साविक कर्म के और सात्त्विक कत्तां भादि के लक्षण बतलाते समय लेले 'फश की प्रासाति छोड़ने को प्रधान गुण माना है वैसे ही सात्त्विक ति का लक्षण बतलाने में भी उसी गुण को प्रधान मानना चाहिये । इसके लिया अगले ही श्लोक में यह वर्णन है कि राजस पृति फनाकाक्षी होती है, अतः इस श्लोक से मी सिद होता है कि साविक कृति, राजस एति के विपरीत, अफलाकादी होनी चाहिये । तात्पर्य यह है कि, निश्चय की दृढ़ता तो निरी मानसिक क्रिया है, उसके मली या बुरी होने का विचार करने के अर्थ यह देखना चाहिये कि जिस काय के लिये इस क्रिया का पयोग किया जाना है, वह कार्य कैसा है। नींद और बालस्य आदि कामों में हीद निश्चय किया गया हो तो वह तामस है। फनाशा- पूर्वक नित्यव्यवहार के काम करने में लगाया गया हो तो राजस और फलाशा. त्यागरूपी योग में वह दृढ़ निश्चय किया गया हो तो साविक है। इस प्रकार ये पति के भेद हुए; अव दतलाते हैं कि गुण-मैदानुसार सुख के तीन प्रकार कैसे होते हैं-] (३६)अब है भरतश्रेष्ठ ! मैं सुख के भी तीन भेद बतलाता है। सुन अभ्यास से अर्थात् निरन्तर परिचय से (मनुष्य) जिसमें रम जाता है और जहाँ दुःख का अन्त होता है, (३७) जो आरम्म में (तो) विषक समान जान पड़ता है परन्तु परिणाम में अमृत के तुल्य है, नो चामनिष्ठ चुदि की प्रसन्नता से प्राप्त होता है, उस (आध्यात्मिक ) सुत्र को सात्विक कहते है। (३) इन्द्रियों और उनके