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पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/८७९

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गीतारहख अथवा कर्मयोगशास्त्र। IS ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परंतप । कर्माणि प्रविभक्कानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः॥ ४१ ॥ शमो दमस्तपं शौचं क्षांतिरार्जवमेव च । ज्ञान विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ॥ ४२ ॥ शौर्य तेजो धृतिर्दाश्यं युद्धे चाप्यपलायनम् । तया फिर यह प्रतिपादन किया है कि इन सब भेदों में साविक भेद श्रेष्ठ और. प्राह्य है। इन सात्त्विक भेदों में भी जो सब से श्रेष्ठ स्थिति है उसी. को गीता में त्रिगुणातीत अवस्था कहा है। गीतारहस्य के सातवें प्रकरण (पृ. १६७-६८) में हम कह चुके हैं कि त्रिगुणातीत अथवा निर्गुण अवस्था गीता के अनुसार कोई स्वतन्त्र या चौया मेद नहीं है। इसी न्याय के अनुसार मनुस्मृति में भी साविक गति के ही उत्तम, मध्यम और कनिष्ठ तीन भेद करके कहा गया है कि उत्तम साविक गति मोक्षप्रंद है और मध्यम साविक गति स्वर्गप्रद है (मनु. १२.४८-५० और १-६१ देखो) । जगत् में जो प्रकृति है उसकी विचि. त्रता का यहाँ तक वर्णन किया गया। अब इस गुण-विभाग से ही चातुर्वर्य- व्यवस्था की उत्पत्ति का निरूपण किया जाता है । यह बात पहले कई बार कही {ना चुकी है कि (देखो १८. ७-६, २३, और ३.८) स्वधर्मानुसार प्रत्येक मनुष्य को अपना अपना नियत' अर्थात नियुक्त किया हुआ कर्म फसाशा छोड़ कर, परन्तु धृति, सत्साह और सारासारविचार के साथ साय, करते जाना ही संसार में उसका कर्तव्य है। परन्तु जिस बात से कर्म 'नियत' होता है, उसका बीज अब तक कहीं भी नहीं बतलाया गया। पीछे एक वार चातुर्वर्य- व्यवस्था का कुछ थोड़ा सा उल्लेख कर (४.१३) कहा गया है कि कर्तव्य- भिकर्तव्य का निर्णय शास्त्र के अनुसार करना चाहिये (नी. १६. २४) । परन्तु जगत के व्यवहार को किसी नियमानुसार जारी रखने के हेतु (देखो गीतार.. {३२४,३६७ और ४८५ -४४६) जिस गुण-कर्मविमाग के तत्त्व पर चातुर्वण्र्य- रूपी शास्त्रज्यवस्था निर्मित की गई है, उसका पूर्ण स्पष्टीकरण उस स्थान में नहीं किया गया । अतएव जिस संस्था से समाज में हर एक मनुष्यं का कर्त्तव्य नियत होता है अर्थात् स्पिर किया जाता है उस चातुर्वर्यकी, गुणत्रयविभाग के अनु- सार, उपपत्ति के साथ ही साथ अब प्रत्येक वर्ण के नियंत किये हुए कर्तव्य भी कहे जाते हैं-1 (४१) हे परन्तप ! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के कर्म उनके स्वभाव- जन्य अर्थात् प्रकृति-सिद्ध गुणों के अनुसार पृथक् पृषक बेटे हुए हैं। (१२) ग्राह्मण का स्वभावजन्य कर्म शम, दम, तप, पवित्रता, शान्ति, सरलता (आर्जब), ज्ञान भर्यात् अध्यात्मज्ञान, विज्ञान यानी विविध ज्ञान और प्रास्तिक्यबुदि है। (४३) शूरता, तेजस्विता, धैर्य, दक्षता, युद्ध से न भागना, दान देना और (प्रजा पर)