पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/८८

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कर्मयोगशास्त्र । जवकि यज्ञ करने की आज्ञा वेदों ही ने दी है, तब यज्ञ के लिये मनुष्य कुछ भी कर्म करे वह उसको बंधक कभी नहीं होगा । वह कर्म यज्ञ का गुक साधन है यह स्वतंत्र शति से साध्य वस्तु नहीं है। इसलिये, यज्ञ से जो फल मिलनेवाला है उसी में उस कर्म का भी समावेश हो जाता है-उस कर्म का कोई अलग फल नहीं होता । परन्तु यज्ञ के लिये किये गये ये कर्म यद्यपि स्वतंत्र फल के देनेवाले नहीं हैं, तथापि स्वयं यज्ञ से स्वर्गप्राप्ति (नर्यात मीमांसकों के मतानुसार एक प्रकार की सुखप्राप्ति ) होती है और इस स्वर्गप्राप्ति के लिये ही यज्ञकर्ता मनुष्य बड़े चाव से यज्ञ करता है । इसी से स्वयं यज्ञकर्म' पुरपार्थ ' कहलाता है। पयोंकि जिस वस्तु पर किसी मनुष्य की प्रीति होती है और जिसे पाने की उसके मन में इच्छा होती है उसे 'पुरुपार्थ कहते हैं (जै. सू. ४. १.१ और २)। यज्ञ का पर्यायवाची एक दूसरा 'ऋतु' शब्ध है, इसलिये यज्ञार्य ' के बदले 'फ्रत्वर्थ' भी कहा करते हैं । इस प्रकार सब कर्मों के दो वर्ग हो गये:-एक ' यज्ञार्य' (क्रत्वर्थ) कर्म, अर्थात् जो स्वतंत्र रीति से फल नहीं देते, अतएव अवंधक है। और दूसरे पुरुषार्थ कर्म, अर्थात् जो पुरुष को लाभकारी होने के कारण बंधक हैं। संहिता और ब्राह्मण प्रन्यों में यज्ञ-याग आदि का ही वर्णन है । यद्यपि मग्वेद- संहिता में इन्द्र आदि देवताओं के स्तुति-संबंधी सून है, तथापि मीमांसक-गण कहते हैं कि सब श्रुति अन्य यज्ञ भादि कर्मों के ही प्रतिपादक हैं क्योंकि उनका विनियोग यज्ञ के समय में ही किया जाता है। इन कर्मठ, याज्ञिक, या केवल कर्मवादियों का कहना है कि वेदोक यज्ञ-याग आदि कर्म करने से ही स्वर्ग- प्राप्ति होती है, नहीं तो नहीं होती; चाहे ये यज्ञ-याग अज्ञानता से किये जाय या ब्रह्मज्ञान से । यद्यपि उपनिषदों में ये यज्ञ ग्राह्य माने गये हैं, तथापि इनकी यो- ग्यता ब्रह्मज्ञान से कम ठहराई गई है, इसलिये निश्चय किया गया है कि यज्ञ-याग से स्वर्गप्राप्ति भले ही हो जाय, परन्तु इनके द्वारा मोक्ष नहीं मिल सकता; मोक्ष- प्राप्ति के लिये ग्रसज्ञान ही की नितान्त आवश्यकता है। भगवद्गीता के दूसरे अध्याय में जिन यज्ञ-याग शादि काग्य कर्मों का वर्णन किया गया है-" वेदवाद- रताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः" (गी. २. ४२) -चे ब्रह्मज्ञान के बिना किये जानेवाले उपर्युक्त यज्ञ-याग आदि कर्म ही हैं । इसी तरह यह भी मीमांसकों ही. के मत का अनुकरण है कि “ यज्ञार्यात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबंधनः" (गी. ३.६) अर्थात् यज्ञार्थ किये गये कर्म बंधक नहीं है: शेप सब कर्म बंधक है। इन यज्ञ-याग नादि वैदिक कर्मों के अतिरिक्तः, अर्थात् श्रीत कर्मों के अतिरिक्त, और भी चातुर्वण्य के भेदानुसार दूसरे आवश्यक कर्म मनुस्मृति आदि धर्मग्रन्थों में वर्णित हैं; जैसे क्षत्रिय के लिये युद्ध और वैश्य के लिये वाणिज्य । पहले पहल इन वणाश्रम- कर्मों का प्रतिपादन स्मृति-अन्यों में किया गया था इसालये इन्हें 'सात कर्म ' या सात यज्ञ ' भी कहते हैं। इन श्रौत और स्मार्त कर्मों के सिवा और भी धार्मिक कर्म हैं जैसे व्रत, उपवास आदि । इनका विस्तृत प्रदिपादन पहले -