पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/८८२

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गीता, अनुवाद और टिप्पणी-१८ अध्याय । सिर प्राप्ती यथा वाम सथानोति नियोध मे। समालनेय फौतेय निछा ज्ञानस्य या परा ॥५०॥ धुर या पिशुसूया युक्तो धृत्यात्मानं निग्रस्य च । पर दिखलायाले शर सत्रिय, सपा किसान, पश्प, रोजगारी, लुहार, पई, हार घार मांसविता प्याध सफ पी भी मावश्यकता है। परन्तु यदि कलौड़े पिना समुप गोश नहीं मिलता, तो सग जोगों को अपना अपना पपसार र कर संन्यापी पर जाना चाहिये ! फर्म संन्यासमार्ग के लोग इस पारगी पनी गार परवा नहीं करते। परन्तु गीता की दृष्टि इतनी संकृधित महाँसाने गीता कहती है कि अपने अधिकार के अनुसार प्राप्त हुए ध्ययसाप तो बोल कर. दुसरे के स्पयसागको मला समझ करके करने लगना अपित नही है। कोई भी पसाय लीगिये, वसमें कुछ न च युटि अवश्य रहती ही है। जैसे मालगा के लिये विशेषतः पिहित जो ज्ञान्ति है (१८.५२), उसमें भी एक पड़ा दोष यह कि 'पमावान् पुरुष दुर्वल समझा जाता है' (ममा. शा. ६०.३४); और ग्याध परी में मांस पेचना भी एक मंझट ही 18 (ममा. पर. २०६)। परन्तु एन कठिनाइयों से उकता कर कर्म को ही छोड़ पेना घिरा नहीं है किसी भी फारसा में पों न हो, जप एक बार किसी का को पानिपा, तो फिर उसकी कठिनाई या पनिषता की परवा न करके, उसे मासजिलोड़ कर करना ही चाहिये । पोंकि मनुष्य की लघुता महशा उसके प्पसाय पर निर्भर नहीं है कि जिस युति से वह अपना व्यवसाय या कर्म सा उसी मुधि पर उसकी योग्यता अध्यात्म-टि से अवलम्पित रहती है (गी. २. ४८) । जिसका मन शान्त ई, और जिसने सब प्राणियों के अन्तर्गत एकता को पहचान लिया है, यह मनुष्य जाति या व्यवसाय से चाहे व्यापारी iही, घाई फसाई निष्काम पुदि से उपपसाय करनेवाला वह मनुष्य मान. सन्याशी माझा, अपया शूर इनिय की बराबरी का माननीय और मोक्ष का भिधिकारी है । यही नहीं, पर ये श्लोक में स्पष्ट कहा है कि कर्म छोड़ने से जो सिन्दि भाप्त की जाती है, वही निष्काम बुद्धि से अपना अपना व्यवसाय करनेवानों को भी मिलती है । भागवतधर्म का जो कुछ रहस्य है, यह यही है। रापा महाराष्ट्र देश के साधु-सन्तों के इतिहास से स्पष्ट होता है कि उक्त रीति से माघरमा कर निकाम युति के ताप को अमल में माना कुछ असम्भव नहीं १६ (देखो गीतार. पृ. ३)।प्रय पतना है कि अपने अपने कर्मों में तत्पर रहने से ही अन्त में मोन से प्राप्त होता है-] (५०) हे कौन्तेय ! (इस प्रकार) सिद्धि प्राप्त होने पर (उम पुरुष को) ज्ञान की परम निघामझ-निस रीति से प्राप्त होती है, उसका मैं संक्षेप से वर्णन करता सुन(५) शुद्ध युद्धि से युक्त हो करके, धैर्य से यात्म-संयमन कर,