गीता, अनुवाद और टिप्पणी- १८ अध्याय । ८४५ नसा सर्पकर्माणि मयि संन्यस्य मत्परः। बुद्धियोगमुपाश्रित्य मचित्तः सततं भव ॥ ५७ ॥ मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्मसादात्तरिष्यसि । मथ नवमांकाराप्त श्रोग्यसि विनश्यसि ॥ ५८॥ दोनों कंपस मानसिक रहिमे एक सी है इसी से संन्यासमार्गीय टीकाकारों को पदमारने का अवसर मिल गया है कि वर्गान हमारे ही मार्ग का है। परन्तु ग कई यार का पुके कि यह सबा नहीं । पस्तु; इस मष्याय के भारम्भ में प्रतिराइन किया गया ६ सिदास का अयं फर्म त्याग नहीं है, किन्तु पलाना त्याग कोशी पार पाहते ६।जय संन्गा शब्द का इस प्रकार मर्य 1 मुशाय ग सिद्ध कि यश, दान बादि कर्म पाई काम्य हो, चाहे नित्य माममिनिक, उनको सय सय फर्मों के समान ही फजाशा मोड़ कर उत्साह |भार पमना में करते जामा मारिणे । तदनन्तर संसार के फर्म, कर्ता, बुद्धि मादि मागी पियों की गुण-भेद में अनेकता दिसला कर उनमें साधिक को श्रेष्ट भीर गीताशाप दाइला गहराया है कि चातुर्वर्य व्यवस्था के राधमांनुसार मास शीयाले समान फर्मा को प्रासक्ति छोड़ कर फरते जाना ही परमेशर हा यमनमा परापूर्व क्रमशः इसी से सन्त मैं परनमा अथवा गोक्ष की प्राप्ति होती :-गोश के लिंगे फोई दूसरा पनुष्ठान करने की आवश्य- का नदी अपपा फर्मस्यागरपी संन्यास लेने की भी जरूरत नहीं है। गोवल दस फर्मयोग से ही मोश-सहित सब सिविगी प्राप्त हो जाती हैं। अब इसी गमयोगमार्ग को धीकार कर लेने के लिये शगुन को फिर एक बार मन्तिम उपदेश करते हैं- (७) मन से सय कर्मों को गुममें संन्यस्य' अर्थात् समर्पित करके मत्परायण होता मा (साम्य) बुद्धियोग के पाश्रय से हमेशा मुझमें पित्त रख। [युरियोग शब्द दूसरे ही अध्याय (२.४८) में भाचुका है और वहाँ उसका अर्थ फलाशा में युधि न रख कर कर्म करने की युक्ति प्रथया समत्ववुद्धि यही मर्थ यहाँ भी विवाशित है और दूसरे अध्याय में जो यह कहा था कि कर्म की अपेशा यदि श्रेष्ठ है, उसी सिद्धान्त का यह उपसंहार है। इसी में कर्मसंन्यास का अर्थ भी इन शब्दों के द्वारा प्यक किया गया है कि "मन से (अर्थात् कर्म का प्रत्यदा त्याग न करके, फेवल पुदि से)मुझमें सय कर्म समर्पित कर।" भौर, वही प्रर्य पहले गीता ३. २० एवं ५. १३ में भी वर्णित है।] (५८) मुझो चित्त रखने पर त.मेरे अनुग्रह से सारे सन्टों को अर्थात् कर्म के शुभा- शुभ फलों को पार कर जावेगा । परन्तु यदि प्रकार के वश हो मेरी न सुनेगा तो (मलयत) नाश पावेगा।
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