गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । संजय उवाच । इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः । संवादामिममधीपमद्भुतं रोमहर्षणम् ।। ७४ ॥ व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्गुह्यमहं परम् । योगं योगेश्वरालपणात्साक्षात्कथयतः स्वयम् ॥ ७५॥ (भूली हुए) कर्तव्य-धर्म की अब उसे स्मृति हो आई है । अर्जुन को युद्ध में प्रवृत्त करने के लिये गीता का उपदेश किया गया है, और स्थान स्थान पर ये शब्द कहे गये हैं कि " अतएव तू युद्ध कर" (गी. २. १८२.३७, ३. ३०८.७ १११.३४); अतएव इस " श्रापके याज्ञानुसार करूंगा" पद का अर्थ युद्ध करता हूँ' ही होता है। प्रस्तु; श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद समाप्त हुधा । अब महाभारत की कथा के संदमांनुसार सन्जय पृतराष्ट्र को यह कया सुना कर उपसंहार करता है- सञ्जय ने कहा-(७) इस प्रकार शरीर को रोमानित करनेवाला वासुदेव और महात्मा अर्जुन का यह अद्भुत संवाद मैंने सुना । (७५) व्यासजी अनुग्रह से मैंने यह परन गुहा, यानी योग अधांत कर्मयोग, साक्षात् योगेश्वर स्वयं श्रीकृपा ही के मुख से सुना है। i पहले ही लिख पाये है कि व्यास ने सञ्जय को दिव्य दृष्टि दी थी, जिससे रणभूमि पर होनेवाली सारी घटनाएँ उसे घर बैठे ही दिखाई देती थीं । और कहीं का वृत्तान्त वह इतराष्ट्र से निवेदन कर देता था। श्रीकृष्ण ने जिल योग' का प्रतिपादन किया, वह कर्मयोग है (गी. ४.१-३) और अर्जुन ने पहले उसे 'योग' (साम्ययोग) कहा ई (गो. ६. ३३); तथा अब सञ्जय भी श्रीकृष्णार्जुन के संवाद को इस श्लोक में 'योग' ही कहता है । इससे स्पष्ट है कि श्रीकृष्ण, अर्जुन और संजय, तीनों के मतानुसार 'योग' अर्थात् कर्मयोग ती गीता का अप्रतिपाद्य विषय है । और अध्याय-समाति-सूचक सशल्प में मी विधी, अर्थात् योग-शास्त्र, शब्द पाया है । परन्तु योगेश्वर शब्द में योग' शब्द का अर्थ इससे कहीं अधिक व्यापक है। योग का साधारण अर्थ कर्म करने की युक्ति, कुशलता या शैली है । इसी अर्थ के अनुसार कहा जाता है कि बहुरुपिया योग से अर्थात् कुशलता से अपने स्वाँग वना लाता है । परन्तु जब कर्म करने की युक्तियों में श्रेष्ट युक्ति को सोजते हैं, तव कहना पड़ता है कि जिस युक्ति से परमेचर मूल में अध्यक्त होने पर भी वह अपने आप को व्यक्त स्वरूप देता है, वहीं युक्ति अथवा योग सत्र में श्रेष्ट है। गीता में इसी को ईश्वरी योग' (गी. ६.1; ६.८) कहा है। और विदान्त में जिले माया कहते हैं, वह भी यही है (गी. ७. २५) । यह अल्ला-
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