पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/८९०

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गीता, अनुवाद और टिप्पणी-१८ अध्याय । राजसंस्मृत्य संस्कृत्य संवादमिममद्भुतम् । केशवार्जुनयोः पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहुः ॥ ७६ ॥ तञ्च संस्कृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः विस्मयो मे महान राजन् हृष्यामि च पुनः पुनः ॥ ७॥ यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पाथी धनुर्धरः। किक अथवा अघटित योग जिसे साध्य हो जाय उसे अन्य सब युक्तियाँ तो हाथ का मैल हैं। परमेश्वर इन योगों का अथवा साया का अधिपति है। अतएव उसे योगेश्वर अर्थात् योगों का स्वामी कहते हैं। योगेधर' शब्द में योग का अर्थ पाताल योग नहीं।] (७६) हे राजा (इतराष्ट्र) ! केराव और अर्जुन के इस अद्भुत एवं पुण्यकारक संवाद का सरण होकर मुझे बार बार इपं हो रहा है। (७)और हे ना! श्रीक्षरि के उस अत्यन्त अद्भुत विश्वरूप की भी वार बार स्मृति होकर मुझे बड़ा विस्मय होता और बार पार हर्प होता है । (94) मेरा मत है कि जहाँ चोगेश्वर श्रीकृष्ण हैं और जहाँ धनुर्धर अर्जुन के वहीं श्री, विजय, शाश्वत ऐश्वर्य और नीति है। i [सिद्धान्त का सार यह है कि जहाँ युक्ति और शक्ति दोनों एकत्रित होती ३. वहाँ निश्चय ही ऋद्धि-सिद्धि निवास करती हैं। कोरी शक्ति से अथवा केवल युक्ति से काम नहीं चलता। जब जरासन्ध का वध करने के लिये मन्त्रणा हो रही थी, तब युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से कहा कि " अन्धं बलं जडं प्राहुः प्रणेतव्यं विचक्षणैः" (सभा. २०. १६)-बल अन्धा और जड़ है, बुद्धिमानों को चाहिये कि उसे मार्ग दिखलायें तथा श्रीकृष्ण ने भी यह कह कर कि "मयि नीतिबल भीमे" (सभा. २०. ३)-मुझसे नीति है और भीमसेन के शरीर में बल है- भीमसेन को साथ ले उनके द्वारा जरासन्ध का वध युक्ति से कराया है । केवल नीति बतलानेवाले को आधा चतुर समझना चाहिये । अर्थात् योगेश्वर यानी योग या युक्ति के ईश्वर और धनुर्धर अर्थात् योद्धा, ये दोनों विशेषण इस श्लोक में हेतु- पूर्वक दिये गये हैं। इस प्रकार श्रीभगवान् के गाये हुए अर्थात् कहे हुए उपनिषद् में, ब्रह्मविद्या- न्तर्गत योग-मर्थात् कर्मयोग-शास्त्रविषयक, श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में, मोजसंन्यास योग नामक अठारहवां अध्याय समाप्त हुआ। i [ध्यान रहे कि मोक्ष सन्यास-योग शब्द में संन्याल शब्द का अर्थ 'काम्य कर्मों का संन्यास ' है, जैसा कि इस अध्याय के प्रारम्भ में कहा गया है। चतुर्थ आश्रमरूपी संन्यास यहाँ विवक्षित नहीं है। इस अध्याय में प्रतिपादन किया गया है कि स्वकर्म को न बोड़ कर, उसे: परमेश्वर में मन से संन्यास अर्थात्