पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/९२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

कर्मयोगशास्त्र। ५७ G तुझे योग के अनुसार उपपत्ति बतलाते हैं' (गी. २.३८) । और फिर इसका वर्णन किया है कि जो लोग हमेशा यज्ञ-यागादि काम्य कर्मों ही में निमग्न रहते हैं उनकी बुद्धि फलाशा से कैसी व्यग्र हो जाती है (गी. २.४१-४६)। इसके पश्चात् उन्होंने यह उपदेश दिया है कि बुद्धि को अन्यन स्थिर या शान्त रख कर "आसक्ति को छोड़ दे, परन्तु कर्मों को छोड़ देने के आग्रह में न पड़" और " योगस्थ हो कर कर्मों का आचरण कर" (गी.२.४८)। यहीं पर 'योग' शब्द का यह स्पष्ट अर्थ भी कह दिया है कि “ सिद्धि, और असिद्धि दोनों में समबुद्धि रखने को योग कहते हैं"। इसके बाद यह कह कर, कि “फल की आशा से कर्म करने की अपेक्षा समबुद्धि का यह योग ही श्रेष्ठ है" (गी.२.४८) और "शुद्धि की समता हो जाने पर, कर्म करने- वाले को, कर्मसंबंधी पाप-पुण्य की बाधा नहीं होती; इसलिये तू इस 'योग' को प्राप्त कर " तुरंत ही योग का यह लक्षण फिर भी बतलाया है कि “ योगः कर्मसु कौशलम् " (गी. २.५०)। इससे सिद्ध होता है कि पाप-पुण्य से अलिप्त रह कर कर्म करने की जो समत्वबुद्धिरूप विशेष युक्ति पहले बतलाई गई है वही कौशल' है और इसी कुशलता अर्थात् युक्ति से कर्म करने को गीता में 'योग' कहा है । इसी अर्थ को अर्जुन ने आगे चल कर " योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन" (गी. ६. ३३) इस श्लोक में स्पष्ट कर दिया है । इसके संबंध में कि, ज्ञानी मनुष्य को इस संसार में कैसे चलना चाहिये, श्रीशंकराचार्य के पूर्व ही प्रचलित हुए वैदिक धर्म के अनुसार, दो मार्ग हैं । एक मार्ग यह है कि ज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर सब कर्मों का संन्यास अर्थात त्याग कर दे; और दूसरा यह कि ज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर भी, कर्मों को न छोड़े-उनको जन्म भर ऐसी युक्ति के साथ करता रहे कि उनके पाप-पुण्य की बाधा न होने पावे । इन्हीं दो मार्गों को गीता में संन्यास और कर्मयोग कहा है (गी. ५.२) । संन्यास कहते हैं त्याग को और योग कहते हैं मेल को; अर्थात् कर्म के त्याग और कर्म के मेल ही के उक्त दो भिन्न भिन्न मार्ग हैं । इन्हीं दो भिन्न मार्गों को लक्ष्य करके आगे (गी. ५.४) "सांख्ययोगो" (सांख्य और योग) ये संक्षिप्त नाम भी दिये गये हैं । बुद्धि को स्थिर करने के लिये पातंजलयोग-शास्त्र के आसनों का वर्णन छठवें अध्याय में है सही; परन्तु वह किसके लिये है ? तपस्वी के लिये नहीं; किन्तु वह कर्मयोगी अर्थात् युक्ति पूर्वक कर्म करनेवाले मनुष्य को, 'समता' की युक्ति सिद्ध कर लेने के लिये, बतलाया गया है । नहीं तो फिर " तपस्विभ्योs- धिको योगी" इस वाक्य का कुछ अर्थ ही नहीं हो सकता । इसी तरह इस अध्याय के अंत (६.४६) में अर्जुन को जो उपदेश दिया गया है कि " तस्माद्योगी भवार्जुन" उसका अर्थ ऐसा नहीं हो सकता कि हे.अर्जुन! तू पातंजल योग का अभ्यास करनेवाला बन जा । इसलिये उक्त उपदेश का अर्थ " योगस्यः कुरु कर्माणि " (२. ४८), " तस्माद्योगाय युज्यस्त्र योगः कर्मसु कौश- लम् " (गी. २.५०), " योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत (४.४२) इत्यादि वचनों के गो.र.८