पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/९८

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or कर्मयोगशास्त्र । पाप-पुराय, धर्म-अधर्म इत्यादि शमी का उपयोग सुशा करता है। कार्य-अकार्य, कर्तव्य-प्रकारच्य, न्याय्य-सन्याय्य इत्यादि शब्दों का भी शर्म वैसा ही होता है। तथापि इन शब्दों का उपयोग करनेवालों का सृष्टि-रचना विषयक मत भिन्न भिन्न होने के कारण “ कर्मयोग "शाग के निरूपण के पंथ भी भित्र भित हो गये हैं। किसी भी शाम को लीजिये. उसके विषयों की चर्चा साधारगातः तीन प्रकार से की जाती है। (१) इस जड़ सृष्टि के पदार्ग ठीक से ही हैं जैसे किये इमारी इन्दिगी को गीचर होते हैं। इसके परे उग और कार नहीं थे इस टि से उनके विषय में विचार करने की एक पक्षति ई गिसे भिगोनिका विवेचन कहते हैं। उदाहरणार्थ, सूर्य को देवता न मान कर फेवल पागभौतिक जड़ पदार्थों का एक गोला मान; और उपाता, प्रकाश, पजन, दरी और प्राकर्षण इत्यादि उपको केवल गुगा- धर्मों ही की परीक्षा करें, तो उसे सूर्य का प्राधिभौतिक विवेचन कहंगे। दूसरा उदाहरण पेड़ का लीजिये। उसका विचार न करके, कि पेड़ के पत्ते निकलना. . फूलना, पालना सानि किया किस अंतर्गत शक्ति के बारा होती है, जय केवल बाहरी एष्टि से विचार किया जाताई कि जमीन में वीज बोने से संकुर फूटते थे, फिर में बढ़ते में सौर उसी के पत्ते, शाखा, फूल इत्यादि एश्य विकार प्रगट होते हैं, तब उसे पेड़ का पाधिभौतिक विवेचन कहते है। रसायनशास. पदार्थविज्ञानशाग, विशुतशास इत्यादि पानिक शासों का विवेचन इसी रंग का होता है। और तो फ्या, आधिभौतिक पंसित यह भी माना करते हैं कि उक्त रीति से किसी वस्तु के एश्य गुगों का विचार कर लेने पर उनका काम पूरा हो जाता --सृष्टि के पदार्थों का इससे पधिक विचार कला निप्पल है। (२)जप उक्त टि पो छोड़ कर इस बात का विचार किया जाता है कि, जड़ सृष्टि के पदायों के मूल में क्या है, क्या इन पदार्थों का अपहार केवल उनके गुगा-धी ही से होता है या उनके लिये पिसी तत्व का साधार भी है। तब फेवल प्राधिभौतिक विवेचन से ही अपना काम नहीं चलता, इमको काम भागे पैर बढ़ाना पड़ता है। उदाहरणार्थ, जब हम यह गानते कि, यह पान- भौतिक सूर्य नामक एक देव का अधिष्ठान है और इसी के द्वारा इस अचेतन गोले (सूर्य) के सब व्यापार या प्यवहार होते रहते हैं। राय उसको उस विषय का प्राविधिक विवेचन कहते हैं। इस मत के अनुसार यह माना जाता है कि पेड़ में, पानी में, हया में, अर्थात् सव पदागों में, अनेक देव है जो उन जड़ तथा प्रचेतन पदार्थों से भिन तो हैं, किन्तु उनके व्यवहारों को वही चलाते हैं। (३) परन्तु जब यह माना गा कि गड़ सृष्टि के हजारों जद पदार्थों में हजारों स्वतंत्र देवता नहीं हैं किन्न बाहरी सृष्टि के सब ध्यवहारों को चलानेवाली, मनुष्य के शरीर में सात्मरपरूप से रहनेयाजी, और मनुष्य को सारी सृष्टि का ज्ञान प्राप्त करा देनेवाली एक ही चित् शक्ति है जो कि नियातीत है और जिसके द्वारा ही इस जगत का सारा व्यवहार चल रहा है तब उस