पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/९९

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गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशाल। विचार-पद्धति को आध्यात्मिक विवेचन कहते हैं। उदाहरणार्थ, अध्यात्मवादियों का मत है कि सूर्य-चन्द्र आदि का व्यवहार, यहाँ तक कि वृक्षों के पत्तों का हिलना भी, इसी अचिन्त्य शक्ति की प्रेरणा ले दुआ करता है। सूर्य-चन्द्र आदि में या अन्य स्थानों में मिन मिन तथा स्वतंत्र देवता नहीं हैं। प्राचीन काल से किसी भी विषय का विवचन करने के लिये ये तीन मार्ग प्रचलित हैं और इनका उपयोग उपनिषद्-अन्यों में भी किया गया है। उदाहरणार्थ, ज्ञाने- न्द्रियाँ श्रेष्ठ हैं या प्राण श्रेष्ठ है इस बात का विचार करते समय वृहदारण्यक आदि उपनिपदों में एक बार उक्त इन्द्रियों के अग्नि आदि दंचनाओं को और दूसरी बार उनके सूक्ष्म रूपों (अध्याला ) को ले कर उनके बलाबल का विचार किया गया है (बृ. १.५.२१ और २२, छां.१.२ और स कोपी- २.८)। और, गीता के सातवें अध्याय के अन्त में तथा पाठवें के प्रारंभ में ईश्वर के स्वरूप का जो विचार बतलाया गया है, वह भी इनी दृष्टि से किया गया है। "आध्यात्मविद्या विद्यानाम् " (गी. १०.३२) इस बास्य के अनुसार हमारे शास्त्रकारों ने उन तीन मागों में से, आध्यात्मिक विवरण को ही अधिक महत्त्व दिया है। पल्तु आज कल उपर्युक्त तीन शब्दों (आधिभौतिक, प्राधिदैविक और आध्यात्मिक) के अर्थ को घोड़ा सा बदल कर प्रसिद्ध आधि- भौतिक फ्रेञ्च पंडित कॉट ने आधिभौतिक विवेचन को ही अधिक महत्व दिया है। उसका कहना है कि, सृष्टि के मूलतत्त्व को खोजते रहने से कुछ लाम नहीं; यह तत्त्व अगम्य है अर्थात् इसको समझ लेना कभी भी संभव नहीं इसलिये इसकी कल्पित नीव पर किसी शास्त्र की इमारत को बढ़ा कर देना न तो संभव है और न रचित । असभ्य और जंगली मनुष्यों ने पहले पहल जय पेड़, बादल और ज्वालामुखी पर्वत आदि को देखा, तब इन लोगों ने अपने भोलेपन से इन सब पदार्थों को देवता ही मान लिया। यह कॉट के मतानु- सार, आधिदैविक ' विचार हो चुका । परन्तु मनुष्यों ने उन कल्पनाओं को शीत्र ही त्याग दिया; वे समझने लगे कि इन सब पढ़ायों में कुछ न कुछ आत्मतत्व

  • मान्म देश में आगष्ट कॉट (Auguste Comte) नामक एक बड़ा पंटित गत

शताब्दी में हो चुका है। इसने समाजशाम्प पर एका बहुत बड़ा अन्य दिन्न कर बताया है कि समाजरचना का शासीय रीति से किस प्रकार विवेचन करना चाहिये। अनेक शालों की आलोचना करके इसने यह निश्चय किया है कि, किती मो शाम को लो, उनका विवचन पहले पहल theological पद्धति से किया जाता है; फिर metaphysical पद्धति से होता है और अन्त में उनको Positive स्वरूप मिलता है। इन्हीं तीन पढ़. तियों को, हमने इस ग्रन्थ में आधिदैविक, आध्यात्मिक और आधिभौतिका, ये तीन प्राचीन नाम दिये है। ये पद्धतियाँ कुछ कोंट को निकाली हुई नहीं है। ये मब पुरानी ही है। तथापि उसने उनका ऐतिहासिक क्रम नई रौति मे घाँधा है और उनमें आधिभौतिक (Positive ) पद्धति को ही श्रेष्ठ बतलाया है: बस इतना ही कॉट का नया शोध है। कोट के अनेक ग्रन्थों का अंग्रेजी में माषान्तर हो गया है ।