श्रद्धाका स्थान ८७ , समझमें हमारे दिल दिमागमे -आया वैसा ही हमने ईमानदारीसे किया, यही श्रद्धापूर्वक करनेका मतलब है । यह नही कि समझते है कुछ और धारणा है कुछ । मगर डर, शर्म या लोभ वगैरहके चलते करते है कुछ और ही। फिर भी श्रद्धाके नामसे पार हो जायँ । श्रद्धापूर्वक करने- का ऐसा मतलब हर्गिज नही है । तब तो अन्धेरखाता ही होगा और उसीपर मुहर लग जायगी। दिल, दिमाग, जबान और हाथ-पाँव आदिके मेल या सामञ्जस्यकी जो बात पहले कही गई है उसीसे यहाँ मतलब है । उसमे जरा भी फेरफार नहीं होना चाहिये। जितना ही फेरफार होगा उतनी ही गडबड और कमी समझिये । सत्रहवे अध्यायके अलावे ७वेंके २०-२३ तथा नवेके २३-३३ श्लोकोमे भी यही भाव दर्शाया गया है। यदि गौरसे विचारा जाय तो उनका दूसरा मतलब होई नही सकता। उनके बारेमे प्रसगवश आगे भी प्रकाश डाला जायगा। चौथे अध्यायके ११, १२ श्लोक भी कुछ ऐसे ही है । इससे यह भी हो जायगा कि करनेवाले पर ही उत्तरदायित्व होगा। क्योकि समझके ही साथ उत्तरदायित्व चलता है। इसीलिये रेलसे आदमी कट जानेपर जिनके ऊपर उसकी जवाबदेही नहीं होती, हालांकि काटनेका काम वही करता है। किन्तु ाइवर पर ही होती है । उसे समझ जो है। यही कारण है कि पागल आदमीके कामोकी जवाबदेही उसपर नहीं होती। वह समझके करता जो नही है । यदि हमने गलतको ही सही समझके ईमानदारीसे उसे ही किया तो हम अपराधी नही हो सकते, यही ताकी मान्यता है ।, यद्यपि ससारमे ऐसा नही होता है । मगर होना तो यही चाहिये । जो कुछ विवेचन अबतक किया गया है उससे तो दूसरी बात उचित होई नही सकती। यह ठीक है कि एक ही काम इस तरह कई ढगसे—यहाँतक कि परस्पर विरोधी ढंगसे भी- किया जा सकता है और सभी करनेवाले निर्दोष और सही हो सकते है
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