गीता-हृदय ? यदि उनने श्रद्धामे किया है जैसा कि बताया गया है । युक्तियुक्त रास्ता तो इनके लिये यही हई । और यदि यह नई बात है तो गीता तो नई वाते बताती ही है। धर्म व्यक्तिगत वस्तु है यहां तकके विवेचनने यह बात साफ कर दो कि धर्म या कर्तव्याकर्त्तव्य मोलहो पाना व्यक्तिगत चीज है। न कि वह सार्वजनिक वस्तु है, जैमा कि ग्रामतीर में माना जाता है । जव अपनी-अपनी समझ के ही अनुमार अद्वापूर्वक धर्म या कर्म करनेका सिद्धान्त तय पा गया और उमका मतलब भी माफ हो गया कि दिल, दिमाग, जवान और हाथ-पांव आदि कर्मेन्द्रियोमे मामञ्जस्य होनेका ही नाम श्रद्धापूर्वक करना है, तो फिर सार्वजनिकताको गुजाइम रही कहाँ जव घद्वा, ईमानदारी और मच्चाई (honestly and sincerely) कर्म करनेका अर्थ माफ हो गया और जब पूर्वोक्त चारोके मामञ्जस्य को मच्चाई नया ईमानदारीमै अलग कोई चीज़ नहीं मान मकते, या यो कहिये कि मच्चाई और ईमानदारी इस सामञ्जस्य या मेलसे भिन्न कोई चीज नहीं, तो यह कैसे होगा कि दो-चारकी भी समझ, श्रद्वा या ईमानदारी एक ही हो। ये मब चीजे, ये मव गुण तो पूर्णरुपमे व्यक्ति- गन है। जो समझ हममें है वही दूसरेमे कैसे होगी ? यदि एकाध वातमे दोनोका मेल भी दैवात् हो जाय तो भी क्या एकताका नो अर्थ है हर बातमे मिल जाना और यही चीज गैरमुमकिन है । जब श्रद्धा और समझपर बात आ जाय तो क्या यह नभव है कि सभी हिन्दू नध्या पूजा करे या चुटिया रखें, या नभी मुस्लिम दाढी गरें और रोजा- नमाज माने ? लोगोको आजाद कर दीजिये और दवाव छोड दीजिये, पाप, ना, प्राजाब, दोजन आदिका भय उनके दिमागमे हटा दीजिये पोर देपिये कि क्या होता है। एक मध्या करेगा तो दूसरा उमके पाम ?
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