पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/१०६

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स्वाभाविक क्या है ? ? हमारा तो ऐसा खयाल है कि गीताके अलावे औरोकी भी मान्यता पहले ऐसी ही थी। उसीका पतन होते-होते वर्तमान दशाको यह धर्म पहुँच गया है। लेकिन गोताके बारेमे तो शककी जगह हई नही कि उसने यही माना है। ऐसी दशामे धर्मको सामूहिक रूप मिली कैसे सकता है यह तो जरूरी नही कि ब्राह्मणका बच्चा ब्राह्मण हो हो, यदि ठीक-ठीक गुण और स्वभावकी पाबन्दी की जाय और उसी कसौटीपर कसा जाय । यह भी नही कि अगर ब्राह्मणका लडका ब्राह्मण हो भी गया तो भी बाप और बेटा--दोनो ही--एक ही तराजूपर सोलह आना पाव रत्तो ठोक उतर जायें-बराबर हो जायँ। यह तो तभी सभव है जब दोनोको समझ एव श्रद्धा और दोनोके स्वभाव एक हो जायें। मगर ऐसा होना गैरमुमकिन है यह पहले ही कहा जा चुका है। यह दूसरी बात है कि जैसे एक ही कक्षामे पढनेवाले छात्रोमे समता न होनेपर भो उनका एक वर्गीकरण व्यवहारके लिये होता है वैसा ही यहाँ भी होता रहा हो और आगे भी हो। मगर उसका मतलब यह तो नही है कि समानता और एकता हो गई। योग्यता तो सवोकी भिन्न-भिन्न रहती ही है, रहेगा ही। एक वर्ण कहनेका तो मतलब केवल यही है कि उस तरहके कर्मों के लिये कौनसे लोग यत्न करे और कौन उनके योग्य है यह मालूम हो जाय । जिस प्रकार किसीकी निजी चीज होती है, अपनी समझ तथा योग्यता होती है, अपना शरीर और स्वास्थ्य होता है, न तो उसपर किसीका अधिकार होता है और न उसकी अपनी चीजसे एकता और समानता किसी औरकी वैसी ही चीजसे होती है। ठीक उसी प्रकार धर्मको भी वात है। वह भी हरेक आदमीका अपना निजी और व्यक्तिगत पदार्थ है। उसमे किसीका साझा या हिस्सा नही है । धर्म सामूहिक-समूह- की-चीज न होकर व्यक्तिगत है, हर व्यक्तिका जुदा-जुदा है। अगर दो आदमी एक ही ढगसे खाना खाते हो और एक ही चीज खाते हो, तो .