६४ गीता-हृदय भी दोनोके खानेकी क्रिया दो होगी, न कि एक । धर्मकी भी यही बात है। यह बात गीताने निर्विवाद सिद्ध कर दी है। कमसे कम अपना मन्तव्य उसने यही बता दिया है। यदि यही मन्तव्य समारमे व्यापक हो जाय, नार्वभौम हो जाय-यदि यह गोताधर्म (गीताका बताया धर्म) मसार मान ले-तो धर्मके झगडे रहने ही न पाये। इनके करते श्राज जो हमारा देश नर्क बन रहा है और गजवकी वलामे मा फँमा है, वह तो न रहे । आज जो भाईका गला भाई और पडोसीका पडोमी धर्मकी वेदापर चढानेको आमादा है, वह तो न हो। धर्मको यह नापाकीजगो तो मिट जाय। इमीके चलते-धर्मको जो लोगोने सामूहिक चीज समझ उसीके नामपर भेडोकी तरह लोगोको मूडना शुरु कर दिया है उसीके करते-- तो राजनीति भी पनाह मांगती है। पण्डित, मौलवी और पादरी हजारो लोगोको योही मुंडके जाने क्या-क्या अटमट सिखाते फिरते है । वे लोग कमानेवाली जनताको-किमानो और मजदूरोको-अपने पांवो खडे होने देना नहीं चाहते इसी धर्मके नामपर और इमीकी अोटमे । जब किमानो और मजदूरोमे वर्गचेतना पनपती है, गुरू होती है और प्रगति करती है तो इन धर्माचार्योक घरमें जाने क्यो प्रातक छा जाता है और ये मातम मनाने लगते है। इनके पान कोठियाँ, कल कापसाने और जमीदारियां न भी हो---और ज्यादातरके पाम तो ये चीजे होती भी नहीं, उनका काम तो चलो और मुरीदोकी 'पूजा' और चढावेसे ही चलता है- नो भी ये जाने क्यो घबरा जाते है और नगे पांव दौड पडते है किमान मजदूरोको उलटा-मुलटा गमझाने और गुमराह करनेके लिये । कम, नकदीर, भाग्य और भगवान ही तो धर्मके स्तम्भ और पाये माने जाने है और उन्होंने नामपर किसानो तथा मजदूरोको ये भलमानम वर्ग-मघर्ष पौर हाकी लढाईमे वामना रोकते है । सीवे और भोले लोग तो इन्हें
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