२. मार्क्सवाद और धर्म १७ " टिक सकना सभव है और उचित भी है उसीका बाधक वही बन गया है जिसे ज्ञानस्वरूप कहा जाय वही ज्ञानप्रसारका विरोधी । मगर स्थिति कुछ ऐसी ही बेढब है । इसलिये प्रगति चाहनेवालोको सारी शक्ति लगाके उसका बेमुरव्वतीसे विरोध करना चाहिये-ऐसा करना चाहिये कि किसी भी तरह वह हमारे रास्तेमे अडगे डाल न सके। बस | मेरे जानते यही मार्क्सका आशय है, होना चाहिये और लेनिनके उक्त वाक्यो का यही अर्थ मै समझता हूँ । इसीलिये इसमे साथ भी देता हूँ। आगे यह बात और भी साफ होगी। लेनिन उसी लेखमे आगे लिखता है, "The fight against religion must not be confined to abstract preaching. The fight must be linked up with the concrete practical class movement directed towards eradicat- ing the social roots of religion” "No educational books will obliterate religion from the minds of those condemned to hard labour of capitalism, until they themselves learn to fight in a united, organised, systematic and conscious manner the 100ts of religion, the domination of capital in all its forms." "धर्मके विरुद्ध लडी जानेवाली लडाई सिर्फ दिमागी बहस-मुबाहसे तक ही परिसीमित न होनी चाहिये। किंतु धर्म की जडके रूपमे जो सामाजिक बाते है उन्हे खत्म करने के लिये जो वर्ग आन्दोलन और संघर्ष चलें-चलाये जायँ'-उनके साथ इसे जोड़ देना चाहिये।" "धर्मको जो जड पूँजीवादकी अनेक सूरतोके रूपमे कायम है उसे मिटानेके लिये सयुक्त, सगठित, नियमित और समझदारीके साथ लडाई " ७
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