१०० गीता-हृदय . सकते है जिनमे आत्मविश्वास हो, जो अपने ही यत्लोसे सब कुछ कर डालनेकी हिम्मत और विश्वास रखते हो। मगर धर्मवाले तो दैव, तकदीर, कर्म, पूर्व जन्मकी कमाई और भगवानपर ही भरोसा रखते है। उनका अन्तिम दारमदार उन्हीपर होता है । भाग्यमें जो बदा होगा सोई होगा, भगवानको मर्जी होगी वही होगी, जव यही मानना है तो जमके प्राणपनसे कौन लडे ? और ये मुफ्तकी हलवा पूडी उडाके तोद फुलानेवाले लडेंगे ? लेकिन यदि असभव भी सभव हो जाय और वही लोग सर्वत्र वर्गसंघर्ष सफ- लतापूर्वक चलाने लगे तो चिन्ता क्या ? हमारा काम तो हो गया। मार्क्सवाद जो चाहता है वह हो गया । हमारा काम है वर्गविहीन समाज बनाना न कि ईश्वरको मिटाना या उसके पीछे लाठी लिये फिरना । यदि धार्मिकोने ही ऐसा समाज बनाया तो भी हमारी जीत हो गई। हमे तो ऐसी दशामें यह कहनेका मी हक है, हम तो तब ऐसा भी कह सकते है कि धर्ममें भी जो गलत चीज है वह भी इसी सघर्ष में ऐसे ही मिट जायगी जैसे श्रेणियाँ मिटेंगी। फिर शुद्ध समाजकी तरह कोई शुद्ध धर्म भी अन्तमे बन जाय तो हर्ज क्या ? लेनिन या मार्क्स और एगेल्सके मतमें एक और भी खूबी है कि उसमे वर्गसंघर्षकी कसौटीपर धर्मको कसते है। हमने तो कही दिया है कि भविष्यका रास्ता मत बन्द कीजिये । हाँ, इस समय ईश्वर और धर्मका रास्ता रोक दीजिये । भविष्यसे हमारा मतलब है श्रेणीविहीन समाज बन जानेके बादसे । हमारे कलेजेके पास ही फोडा हो गया है और उसमे नश्तर लगना जरूरी है। नश्तर लगे भी जरूर, ताकि हम बचे । मगर ऐसा नश्तर हर्गिज न लगे कि कलेजा ही कट जाय और हमी मर जायँ। सदाके लिये धर्म या ईश्वरको इजाजत ही न देना और उन्हें आँख मूंदके मार देना कलेजेका चीरना हो जायगा। हम उससे बचे तो क्या बुरा । हम विच्छूका डक बेमुरव्वतीसे निकाल ले जरूर। मगर उसे
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