११० गीता-हृदय वह तो वर्गसंघर्षका दृष्टान्त देके कहता है कि हडताल वगैरहके समय नास्तिकताका प्रचार उसके लिये घातक होता है। हडतालके समय तो मजदूरोमे एकता चाहिये-दलवन्दी नही चाहिये। यदि कोई भी दलबन्दी उस समय हो सकतो है, तो ऐसी हो जिसपर मजदूरो और उनके नेताओका कोई वश न हो और वह हो सकता है हडतालियो और हडताल विरोधियोको ही, जिन्हें 'कालीटांगे' कहते हैं और जिनका काम होता है हडतालियोकी जगह पर जाके काम करे और इस तरह हडतालको तोडें । शेष मजदूर तो एक ही दलमे होगे। अगर पहले धर्म-वर्मके नामपर दल बने भो होतो वह फौरन खत्म कर दिये जायें। लेनिन तो यह भी कहता है कि पादरी-पुरोहित तो दरअसल मजदूरोके नेता होते नहीं। इसलिये यह बात तो वही चाहते है कि हडताल या वर्गयुद्धके समय भी प्रास्तिक और नास्तिक दलोका बखेडा जरूर ही रहे । वे तो पूँजीपतियोके दलाल होते है। इसीसे यह बात चाहते है। इसीलिये लेनिनका कहना है कि नास्तिकताका प्रचार सघर्षके समय जो कोई करता है वह पूँजोवादियोका सहायक और दलाल होता है, चाहे वह यह बात भले ही न समझे। और जब असली मौकेपर-संघर्ष और लडाईके ही समय ही हम आस्तिक-नास्तिकका झमेला खडा कर नहीं सकते, जब उस वक्त ऐसा करनेकी हमें इजाजत हई नही, तो फिर मार्क्सवादपर नास्तिकताके इलजामका अर्थ ही क्या है ? जब हम मौजमें बैठे है तब तो बहुतसी बातें करते रहते ही हैं। उन्हीमें यह नास्तिकतावाली बात भी हो सकती है। कितने ही प्रकारके वाद-विवाद और मतभेद होते है। बातें जानने, समझने और स्थितिके स्पष्टीकरणके लिये यह चीजे जरूरी होती है। मगर उन्हे उद्देश्य या मान्य समझ लेना भूल है। नास्तिकवाद आदिकी बातें तो वर्गसंघर्षको तैयारोके रूपमें ही की जाती है। क्योकि पादरी- पुरोहित लोग धर्म, भाग्य और भगवानके नामपर जमीदारो और कारखाने-
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