२. मार्क्सवाद और धर्म ? दारोके साथ किसानो और मजदूरोको लडनेसे रोकते हैं। फलत उन्हे मनाना, किसान मजदूरोको समझाना और पादरी-पुरोहितोका मुँह बन्द कर देना जरूरी हो जाता है । यह भी ठीक है कि जबतक जडमूलसे भाग्य और भगवानको ही उडाया न जाय तवतक वे मानते ही नहीं। वे होते है बडे ही वेहया और उनका असर शोषित जनतापर खूब होता है । इसीलिये नास्तिकवाद अनिवार्य होता है । यह भी वात होती है कि धर्म और ईश्वरके मामलेमे जरा भी नर्मी और मुरव्वतसे काम लिया जाय तो एक तो पादरी-पुरोहित चट कह बैठते हैं कि देखा न, आखिर ये लोग भी, दबी जवानसे ही सही, भाग्य और भगवानको मानते ही फलत सारा किया-कराया चौपट हो जाता है। दूसरी बात यह हो जाती है कि किसान और मजदूर दिलोजानसे लडनेको तैयार नहीं हो पाते। क्योकि उसी नर्मीके करते उनमे भी कमजोरी आती है और अन्ततोगत्वा इतना तो सोचते ही है कि जैसा होगा देखा जायगा। और जव वह यह भी कहता है कि अनीश्वरवाद हर देश और हर कालके लिये नही है और उसका प्रचार विशेष सामाजिक परिस्थितिमे ही होता है, तो फिर इसे सदाके लिये मान्य करके मार्क्सवादपर निरीश्वर- वादका कलक लगाना कहाँतक जायज है ? वह यह भी तो कहता ही है कि वर्गसंघर्षके आधारपर ही निरीश्वरवादका प्रचार करना होगा। उसके मतसे वर्तमान समयमे जो संघर्ष चालू हो वह जनताको कही अच्छी तरह शिक्षित और वर्गचेतनायुक्त कर देगा। फिर तो रास्ता साफ हो जाता है। मार्क्सवादका असली काम निरीश्वरता प्रचार नही है। उसका तो काम है शोषितो एव पीडितोको-कमानेवालोको-शिक्षित तथा वर्गचेतनायुक्त करना, जो दूसरे अन्य सभी उपायोकी अपेक्षा वर्गसघर्षसे ही बहुत अच्छी तरह पूरा होता है। फिर निरीश्वरताके कोरे प्रचारको
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