पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/१३९

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दृष्ट और अदृष्ट १३१ और भगवानका ठेकेदार कोई पादरी, पडित या मौलवी आके उन्हे बहकाता है कि कुछ न हो सकेगा, तुम्हारी तकदीर ही खराब है, तुमपर भगवान ही रज है । तुम लोग हारोगे जरूर । मिलवालेपर भगवान खुश जो है, उसका भाग्य सुन्दर जो है, उसका करम चन्दनसे लिखा जो गया है । बस, सारा मामला बिगडता है-उसके बिगडनेका खतरा हो जाता है। मगर अगर उदयनाचार्यवाली दार्शनिक बात और युक्ति मान लें, तो फिर ऐसी बेहूदा बातोकी गुजाइश ही नही रह जाती। उस दशामे इन गुरु-पुरोहितो या मौलवी-पादरियोकी बेहूदगी को जगह है कहाँ ? हड- तालकी सफलताका सारा बाहरी या दृष्ट सामान जब होई गया तो अब अदृष्ट-भाग्य या भगवान-अलग कहाँ रह गया ? यह तो सारी शैतानियत है। अमीरोके दलालोने यह कुचक्र खुद रचा है जो निराधार और बेबुनियाद है । उन्हे तो उलटे यह कहना चाहिये कि हडतालकी तैयारीमे कोई कोर कसर रहने न दो। बस, भगवान और भाग्य तुम्हारे साथ है और जरूर जीतोगे। यही उचित और कर्मवादके सिद्धान्तके अनुसार है। और गीताका क्या कहना ? वह तो हमारे यत्नो और कोशिशोको ही सब कुछ मानती है। वह अदृष् पर्वा न करके काममे मुस्तैदीसे जुट जानेपर ही जोर देती है। वह कहती है कि जब सभी सामान मौजूद है तो जीत तो होगी ही, कार्यसिद्धि तो होगी ही। फिर आगा पीछा क्यो ? वह तो यहांतक कहती है कि जीतने हारनेका क्या सवाल ? हमे तो काम करनेका ही हक है । हमारे बसकी चीज तो यही है । हम फल-वलकी नाहक फिक्र करके कामसे, सघर्षसे क्यो मुंडे ? यह तो नादानी होगी। वह तो पीछे मुडनेवालोको कहती है कि छि -छि, क्या मुंह दिखा- ओगे जब दुश्मन हँसेंगे और लोग गालियाँ देगे? इस तरह बेइज्जतीसे जीनेकी अपेक्षा तो काम करते-करते और लडते-लडते मर जाना लाख +