गीता-हृदय जो एक निश्चित दृष्टि तय कर दी गई है उसीका ज्योका त्यो पालन करनेपर ही गीताका जोर है। वह उसमें जरा भी परिवर्तन बर्दाश्त नहीं कर सकती। नही तो उन्ही शब्दोको हूबहू दोनो जगह दुहरानेका और दूसरा मतलब होई क्या सकता है ? यह भी नहीं कि वे शब्द साधा- रण है। वही तो गीताके इस मन्तव्यके प्रतिपादक है। उनके साथ जो अन्य शब्द या वाक्य पाये जाते है उनका काम है इन्हीकी पुष्टि करना- इन्हीके आशयको स्पष्ट करना । अब जरा इनका अर्थ देखें । श्लोकका जो आधा भाग ऊपर लिखा गया है उसका प्राशय यही है कि "दूसरेका धर्म यदि अच्छी तरह पालन भी किया जाय तो भी उसकी अपेक्षा अपना (स्व) धर्म अधूरा या देखने में बुरा होनेपर भी कही अच्छा होता है ।" एक तो गीताने धर्म और कर्मको एक ही माना है यह बात पहले कही जा चुकी है और आगे भी इसपर विशेष प्रकाश डालेगे। लेकिन इतना तो इससे साफ होई जाता है कि यह मन्तव्य सभी कामो, क्रियाप्रो या अमलोके सम्बन्धमें है, न कि धर्मके नामपर गिनाये गये कुछ पूजा-पाठ, नमाज आदिके ही बारेमें। इसका मतलब यह हुआ कि हमे अपने-अपने कामोकी ही पर्वा करनी चाहिये, फिक्र करनी चाहिये, फिर चाहे वे कितने भी बुरे जंचते हो, भद्दे लगते हो या उनका पूरा होना गैरमुमकिन हो। वे अधूरे भी दूसरोंके पूरोसे कही अच्छे होते है। इसलिये दूसरोके अच्छे, सुन्दर और आसानीसे पूरे होनेवाले कामोपर हमारा खयाल कभी नहीं जाये, हम उन्हें करने और अपनोको छोडनेकी भूल कभी न करे। क्योकि इस तरह हम दो कसूर कर डालेगे। एक तो अपने कर्तव्यसे भ्रष्ट होगे और इस तरह उसकी पावन्दीके विना होनेवाली खरावियोकी जवावदेही हमपर होगी। दूसरे हम अनधिकार 'ष्टाके भी अपराधी होगे। दूसरी बात है इसमें अपने या 'स्व'की। स्वकर्म या स्वधर्मका मतलब
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