पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/१४७

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स्वधर्म और स्वकर्म १३६ है जो प्रत्येक आदमीके लिये किसी वजहसे भी निर्धारित है, निश्चित है, उसके जिम्मे लगाया गया ( assigned ) है, या जो उसके स्वभावके अनुकूल होनेके कारण ही उसपर लादा गया है, उसके माथे मढा गया है । १८वे अध्यायवाले श्लोकमे ऊपर लिखे आधे श्लोकके बाद कारणके रूपमे लिखा गया है कि "स्वभावके अनुकूल जो काम हो उसे करनेमे पाप या बुराई होती नहीं"-"स्वभावनियत कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्विषम् ।" इससे पता चलता है कि स्वकर्म या स्वधर्मका अर्थ है "स्वाभाविक धर्म या कर्म ।" उसके पहलेके ४१-४६तकके छ श्लोकोमे चारो वर्णों के धर्मोको गिनाते हुए सबोको “स्वभाविकधर्म" ही कहा है। उन श्लोकोमे केवल 'कर्म' शब्दही है और इस ४७वेमें भी पूर्वार्द्धमे 'धर्म' कहके उत्तरार्द्धमे, जैसा कि अभी दिखाया है, 'कर्म' ही कहा गया है। बादवाले ४८वेमे भी "सहज कर्मकौन्तेय" में पुनरपि कर्म शब्द ही आया है। फलत मानना होगा कि धर्म और कर्म एक ही मानीमे बोले गये हैं और इन शब्दोका अर्थ है स्वभावनियत, स्वभावके अनुकूल या स्वाभाविक काम । मगर समस्त गीताके आलोडन करने और १८वे अध्यायके आरभके ही कुछ वचनोको भी देखनेसे पता चलता है कि कुछ कर्म ऐसे है जिनके बारेमे स्वभावका सवाल होता ही नहीं। वे तो सवोके लिये नियत, स्थिर या तयशुदा है । दृष्टान्तके लिये ५-६ -दो- श्लोकोमे यज्ञ, दान, तपके बारे में कहा गया है कि ये सबोके लिये समानरूपसे कर्त्तव्य है । इन्हें कोई छोड नही सकता। बेशक फल और कर्म-दोनोकी ही- ग्रासक्ति छोडके ही ये किये जाने चाहिये,' कृष्णने अपना यह पक्का मन्तव्य कहा है । इसके बाद ही "नियतस्य तु सन्यास कर्मण"आदिमे कहा है कि नियत कर्मका त्याग उचित नही है । वह तो तामस त्याग है । वे श्लोकमे भी "कार्यमित्येव यत्कर्म नियत" शब्दोके द्वारा नियत कर्मको कर्तव्य समझके करते हुए फलासक्ति एव कर्मासक्तिके त्यागको ही सात्त्विक-